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________________ जीवसमुदाहारे अप्पाबहुअं ३०६ संखेंजगुणा । सेसाणं सव्यपगदीणं सव्वत्थोवा उक्कस्सपदेसबंधगा जीवा। [ अणुकस्सपदेसबंधगा जीवा ] अणंतगुणा । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालियका०ओरालियमि०-कम्मइ०-णस०-कोधादि०४-मदि-सुद०-असंजद-अचक्खुदं० - तिण्णिले०भवसिक-अभवसि०-मिच्छा०-असण्णि-आहार-अणाहारग त्ति । णवरि ओरालियमि०कम्मइ०-अणाहारगेसु देवगदिपंचग० सव्वत्थोवा उक्क० पदेस०७० जीवा । अणुक्क०पदेसबंध० जीवा संखेंजगुणा । सेसाणं णिरयादि याव सण्णि त्ति एसिं असंखेंजरासीणं' तेसिं एइंदिय-वणप्फदि-णियोदाणं च ओघं देवगदिभंगो । णवरि णिरएसु मणुसाउगमादीणं याव सासण त्ति एसिं परियत्त-अपरियत्तरासीणं याओ पगदीओ परिमाणे संखेंजाओ तासिं पगदीणं ओघ आहारसरीरभंगो। एवं उक्स्स गं अप्पाबहुगं समत्तं । ३४३. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० आहारदुगं सव्वत्थोवा जह०पदे॰बंधगा जीवा । अजह०पदे०६० जीवा संखेंजगुणा। एवं याव अणाहारग त्ति संखेंजपगदीणं सव्वाणं । सेसाणं पगदीणं णाणावरणादीणं सव्वत्थोवा जह० पदे०. अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कामेणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपश्चकके उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष नारिकोंसे लेकर संज्ञी मार्गणा तक जो असंख्यात संख्यावाली मार्गणाएँ हैं उनमें तथा एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें ओघसे देवगतिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि नारकियोंमें मनुष्यायु आदिका सासादनसम्यग्दृष्टि तक तथा परिवर्तमान और अपरिवर्तमान जिन प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं उन प्रकृतियोंका ओघसे आहारकशरीरके समान भङ्ग है। इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ३४३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे आहारकद्विकके जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अजघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अनाहारक मार्गणा तक जिन प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले जो संख्यात जीव हैं,उन सबका भङ्ग इसी प्रकार जानना चाहिए। अर्थात् जिन प्रकृतियोंका किन्हीं भी मार्गणाओंमें संख्यात जीव बन्ध करते हैं उनमें तथा जिन मार्गणाओंका परिमाण ही संख्यात है,उनमें ओघसे आहारकशरीरके समान भङ्ग जानना चाहिए। शेष ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशोंका १. ता०प्रतौ 'ए[सिं] असंखेजरासीणं' इति पाठः । २. ता प्रतौ ‘एवं उक्कस्सगं समत्तं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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