SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अज्झवसाणसमुदाहारे परिमाणाणुगमो ३०१ एवं पम्माए वि । णवरि देवगदिपंचग० - ओरा०-ओरा०अंगो०-समचदु०-उच्चा० थीणगिद्धिभंगो । सुक्काए तेउभंगो। ३३४. उवसम० धुविगाणं सव्वत्थोवा अवत्त । अवढि० असंखेंजगु० । उवरि ओघं । चदुदंस० सव्वत्थोवा अणंतभागवड्डि-हाणि । अवत्त० संखेंजगु० । अवढि० असंखेंजगु० । सेसाणं ओघं । सासण-सम्मामि० मदि०भंगो। एवं मिच्छदिट्ठि०असण्णि" । सण्णि० पंचिंदियभंगो । आहारा० ओघं । एवं अप्पाबहुगं समत्तं एवं वड्डिबंधे त्ति समत्तमणियोगद्दारं । अज्झवसाणसमुदाहारपरूवणा परिमाणाणुगमो - ३३५. अज्झवसाणसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवति । तं जहा-परिमाणाणुगमो अप्पाबहुगे त्ति । परिमाणाणुगमेण दुवि०ओघेण आदेसेण य । आभिणिबोधियणाणावरणीयस्स असंखेंजाणि पदेसबंधट्ठाणाणि । जोगहाणेहितो संखेंज०भागुत्तराणि । कधं संखेंजदिभागुत्तराणि ? अढविधबंधगेण बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । आगे ओघके समान भङ्ग है । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चहिए । इतनी विशेषता है कि देवगतिपश्चक, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, समचतुरस्रसंस्थान और उच्चगोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है। शुक्ललेश्यामें पीतलेश्याके समान भङ्ग है। ३३४. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आगे ओघके समान भङ्ग है । चार दर्शनावरणकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेषका भङ्ग ओघके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें जानना चाहिए । संज्ञी जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय जीवोंके समान भङ्ग है । आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार बृद्धिबन्ध अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। अध्यवसानसमुदाहारप्ररूपणा परिमाणानुगम ३३५. अध्यवसानसमुदाहारका प्रकरण है। उसमें ये दो अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । यथापरिमाणानुगम और अल्पबहुत्व । परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे आभिनिबोधिकज्ञानावरणके असंख्यात प्रदेशबन्धस्थान हैं । ये योगस्थानोंसे संख्यातवें भाग अधिक हैं । संख्यातवें भाग अधिक कैसे हैं ? आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाले १. ता०प्रतौ 'परिमा [णा णुगमो' इति पाठः। २. ता०प्रतौ 'परिमाणाणुगमं दुवि०' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ 'पदेसबंध [ हा ] णाणि' इति पाठः । ४. ता.आ.प्रत्योः 'असंखेज्जभागुत्तराणि' इति पाठः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy