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________________ ३०० महाबंधे पदेसबंधाहियारे पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवढि० असंखेंजगु० । उवरि ओघं । णवरि चदुदंस० सव्वत्थोवा अणंतभागवड्वि-हाणि । अवत्त० संखेंजगु० । अवट्टि० असंखेंजगु० । उवरि ओघ । पञ्चक्खाणाव०४ सव्वत्थोवा अवत्त । अणंतभागवड्डि-हाणि दो वि तुल्ला असंखेंजगु० । अवढि० असंखेंजगुः । उवरि ओघं । [एवं चदुसंज०]। दोवेदणी०थिरादितिण्णियुग०-आहारदुर्ग ओघं । चदुणोक० साद० भंगो । एवमाउगं । णवरि मणुसाउ० मणुसिभंगो। एवं ओधिदं०-सम्मादि०- खइग०- वेदग०। मणपज्जेसंजद०-सामाइ०-छेदो०-परिहार० ओधि भंगो । णवरि संखेंजगुणं कादव्वं । सुहुमसंप० अवगद०भंगो । संजदासंजद० परिहार भंगो।। ३३३. असंजदेसु धुविगाणं मदि०भंगो। एसिं धुविगाणं अणंतभागवड्डि-हाणि. अत्थि तेसिं ताओ थोवाओ। अवढि० अणंतगुणा। उवरि ओघ । सेसाणं पगदीणं ओघं । एवं किण्ण-णील-काऊणं । तेऊए धुविगाणं सव्वत्थोवा अवढि० । उवरि ओघं । देवगदिपंचग-ओरालि० सव्वत्थोवा अवत्त । अवढि० असंखेंजगु० । उवरि ओघं । सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । आगे ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि चार दर्शनावरणकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आगे ओघके समान भङ्ग है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभाग हानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आगे ओघके समान भङ्ग है। इसी प्रकार चार संज्वलनके विषयमें जानना चाहिए । दो वेदनीय, स्थिर आदि तीन युगल और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। चार नोकषायोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । इसी प्रकार आयुके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा कहना चाहिए । सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। संयतासंयत जीवोंमें परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान भङ्ग है। ३३३. असंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। जिन ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है उनके इन पदोंके बन्धक जीय स्तोक हैं । उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। आगे ओघके समान भङ्ग है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यामें जानना चाहिए। पीतलेश्यामें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । आगे ओघके समान भङ्ग है । देवगतिपञ्चक और औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके १. ता०प्रतौ 'ओधिद' । सम्मादि० खइग० वेदग० मणपज' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'असंखेज (असंज) देसु' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ 'अवत्त । असंखेजगु०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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