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________________ २६४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे छम्मासं० । तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० सेढीए असंखें । अवत्त० जह० एग०, उक० वासपुधत्तं० । एवं सुहुमसं० । णवरि अवत्त० णत्थि।। ३२३. वेउब्बियमि० मिच्छ० अवत्त० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखें । एवं ओरालियमि०-कम्मइ०-अणाहार० । वेउव्वियमि'० सव्वपगदीणं एगवड्डि-अवत्त० जह० एग०, उक्क० बारसमुहुत्तं० । णवरि एइंदियतिगस्स चउव्वीसं मुहुत्तं । एवं सेसाणं णिरयादीणं ओघेण आदेसेण य साधेदव्वं । एसिं संखेंजरासी असंखेंजरासी तेसिं अंतरं ओघं देवगदिभंगो । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्यं । एवं अंतरं समत्तं । हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसमें अवक्तव्यपद नहीं है। विशेषार्थ-छह और सात कर्मोंका बन्ध करनेवाले अपगतवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, इसलिए यहाँ सब प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। पर क्षपकणिमें इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं होता और उपशमश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, इसलिए यहाँ इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वषेपृथक्त्वप्रमाण कहा है। यहाँ इन प्रकृतियोंके शेष पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंकी स्थिति अपगतवेदी जीवोंके समान ही है, इसलिए उनमें इनके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंमें किसी भी प्रकृतिका अवक्तव्यपद सम्भव नहीं है, इसलिए उसका निषेध किया है। ३२३. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में जानना चाहिए । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में सब प्रकृतियोंकी एक वृद्धि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियजातित्रिकका उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है। इसी प्रकार शेष नरकादि गतियोंमें ओघ और आदेशके अनुसार अन्तरकाल साध लेना चाहिए । जिनकी संख्यात और असंख्यात राशि है उनका अन्तर ओघसे देवगतिके समान है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। विशेषार्थ-वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है, इसलिए यहाँ सब प्रकृतियोंकी जिनकी केवल वृद्धि सम्भव है,उनकी वृद्धिकी अपेक्षा और जिनकी वृद्धि और अवक्तव्यपद दोनों सम्भव हैं, उनके दोनों पदोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त कहा है । मात्र यहाँ एकेन्द्रियजातित्रिकका १. ता०प्रतौ 'अणाहार० वेउब्धियमि०' इति पाठः । २. ता प्रती एवं अंतर समत्तं।' इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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