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________________ २८६ ३२०. कम्मइग० - अणाहारगेसु देवगदिपंचग० असंखेजगुणवड्डि० जह० एग०, उक० संखेजसमयं । मिच्छ० अवत्त० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखें | धुविगाणं असंखेज गुणवड्डूि० सेसाणं परियत्त० असंखजगु० अवत्त'० सव्वद्धा । वेउव्त्रियमि० सव्वपगदीणं असंखेजगुणवड्डि० जह० अंतो०, परियत्तीणं [ जह० ] एग०, उक्क० पलिदो ० असंखे॰ | एसिं अवत्त० अत्थि तेसिं जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखे ँ । तित्थ० इनकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा कहा है । तथा इनके शेष पदका क्रमसे असंख्यात जीव बन्ध कर सकते हैं, इसलिए उनके बन्धकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। आहारकद्विकके बन्धक नाना जीव सर्वदा पाये जाते हैं और उनमें से किसी-न-किसी के इनकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि भी होती रहती है, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका काल सर्वदा कहा है । इनकी तीन वृद्धि और तीन हानिको क्रमसे संख्यात जीव भी करें तो भी उस सब कालका जोड़ आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, इसलिए यहाँ इनके उक्त पदों के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा इनके अवस्थित और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट काल एक जीवकी अपेक्षा क्रमसे संख्यात समय और एक समय है, इसलिए यहाँ इनके उक्त पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग देवगतिके समान होनेसे उसके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र इसका अवक्तव्यपद करनेवाले जीव संख्यात ही होते हैं, इसलिए इसके इस पदवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । शेष सातावेदनीय आदि एक तो परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं । दूसरे एकेन्द्रियादि जीव इनका बन्ध करते हैं, इसलिए इनके सब पढ़ोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। यह ओघप्ररूपणा काययोगी आदि कुछ मार्गणाओं में अविकल बन जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें यथासम्भव अन्य सब प्ररूपणा ओघके समान वन जाती है, इसलिए उनमें भी ओघ के समान जानने की सूचना की है। मात्र इनमें देवगतिपञ्चकका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात ही होते हैं और इनकी यहाँ एक असंख्यातगुणवृद्धि ही होती है, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । ३२०. कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में देवगतिपञ्चककी असंख्यात गुणवृद्धि के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । मिथ्यात्व के अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियांकी असंख्यातगुणवृद्धि और शेप परावर्तमान प्रकृतियों की असंख्यात गुणवृद्धि तथा अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का काल सर्वदा है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में सब प्रकृतियों की असंख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, परावर्तमान प्रकृतियों की असंख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और सबका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा जिनका अवक्तव्यपद है उनके बन्धक जीवों का जन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों के समान है। नरक आदि १. ता० प्रती 'असंखेज गु० । अवत्त०' इति पाठः । ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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