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________________ २८५ वडियंधे कालो कालो ३१६. कालाणुगमेण दुवि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण पंचणा०-तेजा०क० बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। किन्तु ऐसे समयमें इनका अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। नीचे कुछ कम छह राजू और ऊपर कुछ कम छह राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्धात करते समय वक्रियिकद्विककी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका स्पर्शन वसनालीक कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। परन्तु ऐसे समयमें इनका अवक्तव्यपद सम्भव नहीं है, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। औदारिकशरीरका बन्ध एकेन्द्रिय आदि जीव भी करते हैं, इसलिए इसका भङ्ग ज्ञानावरणके समान कहा है। मात्र इसके अवक्तव्यपदके स्पर्शनमें अन्तर है। बात यह है कि देव और नारकी उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें इसका अवक्तव्यबन्ध करते हैं, इसलिए इसके अवक्तव्यपदवाले जीवोंका स्पर्शन वसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। देवोंके बिहारवल्वस्थान आदिके समय भी तीर्थङ्कर प्रकृतिकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपद सम्भव हैं, इसलिए इसके उक्त पदोंके बन्धक जीवोंका स्पशन सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। इसका अवक्तव्यपद एक तो उपशमश्रेणिमें होता है, दूसरे इसको बन्धव्युच्छित्तिके बाद जो मरकर देव होते हैं उनके प्रथम समयमें होता है और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जो मनुष्य अन्तमें मिथ्यादृष्टि होकर दूसरे-तीसरे नरकमें उत्पन्न होते हैं, उनके सम्यक्त्वपूर्वक पुनः इसका बन्ध प्रारम्भ करनेके प्रथम समयमें होता है । यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः यहाँ इसका वन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। क्योंकि इस पदवाले जीवोंका क्षेत्र इतना ही है । यहाँ सामान्य तिर्यश्च आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें अपने-अपने बन्धके अनुसार यह ओघप्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। यहाँ इसी प्रकार अनाहारक पर्यन्त भुजगार प्रदेशबन्धके समान जाननेकी सूचना करके कुछ अपवादोंका अलगसे निर्देश किया है । यथामूलमें गिनाई गई सब नारकी आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है । कारण स्पष्ट है, इसलिए इनमें उक्त पदवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। आभिनिबोधिकझानी आदि तीन मार्गणाओंमें भी इन पदवाले जीवोंका स्पर्शन इसी प्रकार जानना चाहिए । पीतादि लेश्याओंके रहते हुए देवोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका अवक्तव्यबन्ध सम्भव है, क्योंकि जो पश्चम आदि गुणस्थानवाले जीव इन लेश्याओंके साथ मरकर देव होते हैं, उनके प्रथम समयमें उक्त प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद ही होता है, इसलिए इन लेश्याओंमें उक्त प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका स्पर्शन क्रमसे त्रसनालीके कुछ कम डेढ़, कुछ कम पाँच और कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । इस प्रकार ओघके अनुसार साध कर सर्वत्र स्पशन घटित कर लेना चाहिए। इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ। काल ३१६. कालानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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