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________________ वडिबंधे फोसणं २८३ सव्वपदा खेत्तभंगो । मणुसाउ० सव्वपदा लोगस्स असंखे अट्ठचौद्द० सव्वलो । दोगदि-दोआणु० चत्तारिवाड्वि-हाणि-अवढि० छच्चों । अवत्त० खेत्तभंगो। वेउवि०वेउव्वि०अंगो० चत्तारिवाड्डि-हाणि-अवढि० बारहचों । अवत्त० खेत्तभंगो। ओरालि. णाणाभंगो। अवत्त० बारहचों । तित्थय० चत्तारिवड्डि-हाणि-अवट्ठि. अट्ठचौ । अवत्त० खेत्तभंगो। एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि०-कोधादि०४-अचक्खुदं०भवसि०-आहारग त्ति । एवं एदेण बीजेण भुजगारभंगो कादव्वो याव अणाहारग त्ति । णवरि अणंतभागवड्डि-हाणि० सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-मणुस-ओरालि०-णसामणपजव० - संजद-खइग० - उवसम० खेत्तभंगो। आभिणि-सुद-ओधि० खेत्तभंगो। तेऊए अपचक्खाण०४ अवत्त० दिवड्डचौद० पम्माए पंचचौ सुक्काए छच्चोंदस० । अण्णेसिं तेसिं केसिं च ओघेण साधेदण णेदव्यं । __ एवं फोसणं समत्तं। किया है। दो आयु और आहारकद्विकके सब पदोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। मनुष्यायुके सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो गति और दो आनुपूर्वीकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इनके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने वसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। औदारिकशरीरका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। मात्र इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्करप्रकृतिको चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान है । इस प्रकार ओघके समान सामान्य तियश्च, काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए। इस प्रकार इस बीजके अनुसार अनाहारक मार्गणा तक भुजगारके समान भङ्ग करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, मनःपर्ययज्ञानवाले, संयत, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें भी क्षेत्रके समान भङ्ग है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने पीत लेश्यामें त्रसनालीके कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका, पद्मलेश्यामें त्रसनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका और शुक्ललेश्यामें त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अन्य प्रकृतियोंका उनमें तथा किन्हींमें ओघके अनुसार साध लेना चाहिए। १. ता०प्रतौ ‘एवं फोसणं समत्तं ।' इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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