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________________ वडिबंधे परिमाणं 271 परिमाणं 306. परिमाणाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० / ओघेण पंचणा-छदसणा०. [पच्चक्खाण०४]-चदुसंज०-भय-दु०-तेजा.-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. चत्तारिवाड्डि-हाणि-अवढि० कॅत्तिया ? अणंता / अवत्तव्व० कॅत्तिया ? संखेंजा / थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अट्ठक०-ओरालि. णाणा भंगो / णवरि अवत्त० कॅत्तिया ? अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि भी सम्भव है / पाँच नोकषायोंके साथ उनके इन पदवालोंका भागाभाग कितना है,यह बतलानेके लिए उसको अलगसे सूचना की है। ये पाँच ज्ञानावरणादि सब ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं। अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके पूर्व इनका सब जीव नियमसे बन्ध करते हैं / इनमें औदारिकशरीर ऐसा है जो सप्रतिपक्ष प्रकृति कही जा सकती है,परन्तु सब अपर्याप्तक और एकेन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय तकके जीव उसका नियमसे बन्ध करते हैं, इसलिए उन जीवोंकी अपेक्षा वह भी ध्रवबन्धिनी है। अब शेष जो प्रकृतियाँ रहती हैं, वे परावर्तमान हैं, इसलिए उनके अवक्तव्य पदकी परिगणना तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके साथ की गई है। अतः पाँच ज्ञानावरणादिके अवक्तव्यपदवालोंका भागाभाग जो अलगसे कहा गया है, उसे यहाँ अलगसे नहीं दिखलाया गया है। मात्र आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके विषयमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि आहारकद्विकका बन्ध करनेवाले जीव ही संख्यात होते हैं, इसलिए असंख्यातवें भागप्रमाणके स्थानमें यहाँ संख्यातवें भागप्रममाण होते हैं,ऐसा कहनेकी सूचना की गई है। तथा तीर्थक्कर प्रकृति ध्रुवबन्धिनी ही है,यह दिखलानेके लिए उसका भङ्ग ज्ञानावरणके समान जाननेकी सूचना की है,पर इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका भागाभाग सातावेदनीयके समान है। क्योंकि तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धक जीव असंख्यात होते हैं और इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात होते हैं, इसलिए यहाँ इस पदकी अपेक्षा भागाभाग सातावेदनीयके समान बन जानेसे उसे उसके समान जाननेकी सूचना की है। यहाँ सामान्य तिर्यश्च आदि कुछ अन्य मार्गणाएँ गिनाई हैं, जिनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। उसका कारण इतना ही है कि ये सब मार्गणाएँ अनन्त संख्यावाली हैं, इसलिए उनमें ओघप्ररूपणा बन जाती है / मात्र अपनी-अपनी बन्धयोग्य प्रकृतियोंको जानकर भागाभाग कहना चाहिए। किन्तु उनमें औदारिकमिश्रकाययोग एक ऐसी मार्गणा है जिसमें देवगतिपञ्चकको एकमात्र असंख्यातगुणवृद्धि होती है, इसलिए यहाँ इसका भागाभाग सम्भव नहीं है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक ये दो ऐसी मार्गणाएँ हैं, जिनमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धि ही होती है, इसलिए इनका भागाभाग सम्भव नहीं है / शेष प्रकृतियोंकी अवश्य ही असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यपद होते हैं, इसलिए इनका भागाभाग अलगसे कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ। परिमाण 306. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश / ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं / अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, आठ कषाय और औदारिकशरीरका भङ्ग ज्ञानाबरणके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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