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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ३०१. भवसि०-अ-भवसि०-सम्मा-खड़ग०-वेदग० भुजगारभंगो । णवरि अणंतभागवड्डि-हाणि अंतरं ओधि भंगो । अप्पप्पणो हिदी कादव्वं । ३०२. उवसम० चदुदंस०-चदुसंज० चत्तारिखड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणंतभागवड्डि-हाणि-अवत्त० णत्थि अंतरं । पञ्चक्खाण०४ अणंतभागवड्वि-हाणि-अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । सेसाणं भुजगारभंगो । सासण० है, उसका कारण यह है कि इकतीस सागरसे अधिक स्थितिवाले देव नियमसे सम्यग्दृष्टि होते हैं और ऐसे देवोंके उक्त प्रकृतियोंके उक्त दोनों पद नहीं बनते । अतः यहाँ इन दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है । एक मनुष्यने उपशमणिपर आरोहण करते समय देवगतिचतुष्ककी असंख्यातगुणवृद्धि की। उसके बाद उतरते समय इनका अवक्तव्यबन्ध किया और मरकर तेतीस सागरकी आयुके साथ देव हो गया । पुनः वहाँसे च्युत होकर प्रथम समयमें अवक्तव्यबन्ध करके द्वितीय समयमें असंख्यातगुणवृद्धि की । इस प्रकार इनके उक्त पदका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । इनके शेष पद तिर्यश्चों और मनुष्यों में होते हैं और वहाँ इस लेश्याका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः इनके उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । अब रहा एक अवक्तव्यपद सो मनुष्योंमें इनका अवक्तव्यपद करावे । बादमें देवों में उत्पन्न करावे और वहाँसे च्युत होकर मनुष्य होनेपर पुनः अवक्तव्यपद करावे और अन्तरकाल ले आवे । यतः यहाँ इस प्रकार दो वार अवक्तव्यपद प्राप्त करनेमें कमसे कम साधिक अठारह सागर और अधिकसे अधिक साधिक तेतीस सागर काल लगता है, अतः इन प्रकृतियोंके उक्त पदका जघन्य अन्तरकाल साधिक अठारह सागर और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है। इस प्रकार यहाँ तक जो अन्तरकाल कहा है उसके आगे शेष प्रकृतियोंका उनके अपने-अपने पदोंके अनुसार अन्तरकाल भुजगार अनुयोगद्वार को लक्ष्यमें रखकर प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए उसे भुजगारके समान जाननेकी सूचना की है। ३०१. भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में भुजगारके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिका अन्तर अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । मात्र सर्वत्र अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । अर्थात् जिस मार्गणाका जो उत्कृष्ट काल है उसे जानकर उत्कृष्ट अन्तरकाल लाना चाहिए। विशेषार्थ—यहाँ अभव्य मार्गणामें किसी भी प्रकृतिकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि सम्भव नहीं है। शेषमें सम्भव है सो अवधिज्ञानमार्गणाके अनुसार वह घटित कर लेना चाहिए। पर जिसकी जो कायस्थिति हो उसे जानकर घटित करना चाहिए। यहाँ इतना और विशेष जानना चाहिए कि भव्य मागणामें मिथ्यात्वादि सब गुणस्थान सम्भव हैं, इसलिए इसमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिका भङ्ग ओघके समान बन जाता है। ३०२. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें चार दर्शनावरण और चार संज्वलनकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि और अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि और अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। १ ता० प्रती 'कादव्वो भव अन्भव० । सम्मा०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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