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________________ वड्ढिबंधे अंतरं २६५ ३००, सुकाए पंचणा० छदंसणा ० - चंदु संज-भय-दु० - पंचिंदि० तेजा०क० वण्ण०४-अगु०४-तस०४ - णिमि० पंचंत० एकवड्डि- हाणि० जह० एग०, उक० अंतो० । तिण्णवड्डि-हाणि-अवडि० जह० एग०, उक्क० तैंतीसं० सादि० । अवत्त० णत्थि अंतरं । एसिं अनंतभागवड्डि-हाणी अत्थि तेसिं जह० अंतो०, उक० ऍक्कत्तीसं० दे० । मणुस दि २०४ धुविगाण भंगो । णवरि तेत्तीसं० देसू० | देवगदि ०४ असंखेज्जगुणवड्डि ० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । सेसपदाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० अट्ठारससाग० सादि०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । एवं० भुजगारभंगो कादव्वो । पाङ्ग भी ध्रुवबन्धिनी प्रकृति हो जाती है, अतः इसका भङ्ग ज्ञानावरणके समान प्राप्त होनेसे उसे उनके समान जानने की सूचना की है । परन्तु यहाँ औदारिक आङ्गोपाङ्गका अवक्तव्यपद भी सम्भव है, पर उसका अन्तरकाल सम्भव नहीं है, इसलिए इस प्रकृतिके उक्त पदके अन्तर - कालका निषेध किया है। खुलासा पहले औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके अन्तरकालका निषेध करते समय कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए । ३००. शुक्ललेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायकी एक वृद्धि और एक हानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है | तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। जिनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है, उनके इन पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। मनुष्यगतिचतुष्कका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। देवगतिचतुष्ककी असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । इनके शेष पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यपदका जवन्य अन्तर साधिक अठारह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । इस प्रकार भुजगार अनुयोगद्वारके समान भङ्ग करना चाहिए | विशेषार्थ — शुक्ललेश्या में उपशमश्रेणिमें बन्धव्युच्छित्तिके बादके कालको छोड़कर पाँच ज्ञानावरणादिका निरन्तर बन्ध होता रहता है । इसलिए यहाँ इनकी एक वृद्धि और एक हानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। तथा इस उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। यह सम्भव है कि इसके कालके प्रारम्भमें और अन्त में उक्त प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपद हों तथा मध्यमें न हों, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है । यहाँ उपशमश्रोणिसे उतरते समय यद्यपि इनका अवक्तव्यपद होता है, पर इस लेश्याके उसी काल में दूसरी बार उपशमश्रणपर चढ़ना और उतरना सम्भव नहीं है, क्योंकि उपशमश्रेणिसे उतरकर सातवें गुणस्थान में आनेपर लेश्या बदल जाती है । इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद होकर भी उसका अन्तरकाल सम्भव नहीं है, अतः उसका निषेध किया है । यहाँ जिन प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि होती है, उनके इन पदोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तो पूर्ववत् घटित कर लेना चाहिए। पर उत्कृष्ट अन्तर जो कुछ कम इकतीस सागर बतलाया ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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