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________________ वडिबंधे अंतरं २४१ कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण होनेसे यहाँ असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। यहाँ शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है । मात्र इनके अवक्तव्यपदका अन्तरकाल प्राप्त करनेके लिए इसके स्वामित्वका विचार कर घटित कर लेना चाहिए । छह दर्शनावरण आदि बारह प्रकृतियोंके स्वामित्वके अनुसार अवक्तव्यपदके समान अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि भी सम्भव हैं और अवक्तव्यपदके समान इन दोनों पदोंका भी जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अधेपुद्गल परिवर्तनप्रमाण बन जाता है, इसलिए वह उक्तप्रमा कहा है। मात्र इन प्रकृतियोंके इन तीनों पदोंका यह अन्तर काल अपने-अपने स्वामित्वके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरका विचार करके ही घटित करना चाहिए । इनके शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है। सातावेदनीय आदि यद्यपि परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं,फिर भी योगस्थानोंके अनुसार इनकी दो वृद्धियों और दो हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त तथा मध्यकी दो वृद्धियों, दो हानियों और अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। तथा इनके बन्धका एक बार प्रारम्भ होकर व्युच्छित्ति हो जाने पर पुनः दूसरी बार बन्धका प्रारम्भ होनेमें कमसे कम और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त लगता है, इसलिए इनके अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । आठ कषायोंकी अनन्तभागवृद्धि,अनन्तभागहानि और अवक्तव्यपदका जो स्वामी कहा है, उसका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण प्राप्त होनेसे इन पदोंका भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। तथा इन आठ कषायोंका उत्कृष्ट बन्धान्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण बतलाया है, इसलिए यहाँ असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। इनके शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है। स्त्रीवेदका बन्धान्तर मिथ्यात्वके समान प्राप्त होनेसे इसका भङ्ग मिथ्यात्वके समान कहा है। किन्तु यह परावर्तमान प्रकृति है, इसलिए इसके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर मिथ्यात्वके समान नहीं प्राप्त होनेसे उसका निर्देश अलगसे किया है। नपुंसकवेद आदि पन्द्रह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट बन्धान्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए इनकी दोनों छोरको दो वृद्धियों और दो हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इमलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर काल भी उक्तप्रमाण बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। इनके शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है । पुरुषवेदकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि का जो स्वामी है, उसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण प्राप्त होनेसे पुरुषवेदके इन दोनों पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। तथा पुरुषवेदका बन्ध साधिक दो छयासठ सागर तक निरन्तर होता रहे, यह सम्भव है, इसलिए इसके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। तथा यह परावर्तमान प्रकृति है, इसलिए इसके शेष पदोंका भग सातावेदनीयके समान बन जानेसे उसके समान जाननेकी सूचना की है। तीन आयु आदिका बन्ध अनन्त काल तक न हो, यह सम्भव है, इसलिए इनके सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। तिर्यश्चायुका अधिकसे अधिक सौ सागर पृथक्त्व काल तक बन्ध नहीं होता, इसलिए इसकी दो वृद्धियों, दो हानियों और अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। इसके शेष पदोंका उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है,यह स्पष्ट ही है। तिर्यश्चगति आदि तीनका बन्ध एक सौ त्रेसठ सागर काल तक न हो,यह सम्भव है, इसलिए इनकी दो वृद्धियों और दो हानियोंका ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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