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________________ २४० महाबंधे पदेसबंधाहियारे अवत्त० जह. अंतो०, उक्क० अणंतकालमसंखें। ओरालि अंगो०-वजरि० अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । आहारदुगं चत्तारिवड्डि-हाणि-अवढि० जहू. एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अद्धपोंग्गल०। समचदु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सरआर्दै० चत्तारिवाड्डि-हाणि-[ अवट्ठि० ] णाणा भंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उक्क० बेछावट्ठि० सादि० तिणिपलिदो० देसू० । तित्थ० दोवड्डि-हाणि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । दोण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, अवत्त [ जह• ] अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि०। णीचा. णqसगभंगो। णवरि अवत्त० जह० अंतो०, उक० असंखेंजा लोगा। पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है । औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराच संहननके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । आहारकद्विककी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुदुलपरिवर्तनप्रमाण है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है । तीर्थङ्कर प्रकृतिकी दो वृद्धि और दो हानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। नीचगोत्रका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। विशेषार्थ-ओघसे पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं । इनका अवक्तव्य बन्धका अन्तर दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़े हुए जीवके इन प्रकृतियोंका अबन्धक होकर और पुनः बन्ध करानेपर ही सम्भव है और इस प्रकार दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़कर दो बार अबन्धक होनेके बाद पुनः बन्धक होनेका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण होता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा इनकी शेष वृद्धि, हानि और अवस्थितपद एक समयके अन्तरसे हो सकते हैं, इसलिए तो उनका जघन्य अन्तर एक समय कहा है। आगे भी सब प्रकृतियोंकी इन वृद्धियों, हानियों और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। अब रहा इन वृद्धियों, हानियों और अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर सो इनमें से दो वृद्धियों और दो हानियोंकी प्राप्ति यदि अधिकसे अधिक कालमें हो तो वह नियमसे अन्तर्मुहूर्त के बाद सम्भव है, इसलिए इनका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है और शेष वृद्धियाँ, हानियाँ व अवस्थित पद यदि अधिकसे अधिक कालमें प्राप्त हों, तो उनकी दो बार प्राप्तिके मध्य अधिकसे अधिक जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अन्तर पड़ सकता है, क्योंकि सब योगस्थान जगश्रोणिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं, अतः इनका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । स्त्यानगृद्धित्रिक आदि आठ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट बन्धान्तर १. आ०प्रती 'हाणि० णाणा भंगो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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