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महाबँधे पदेसबंधाहियारे
णोक० उक्क० बड्डी कस्स ० १ अण्णद० सम्मादिट्ठि० अट्ठविधबं० सत्तविधबंधगो जादो तस्स उक्क० वड्डी | उक्क० हाणी कस्स० १ यो उक्क० जोगी मदो जह० जोगट्ठाणे पडिदो तस्स उक्क हाणी । अवद्वाणं सत्थाणे कादव्वं । अपच्चक्खाण०४- [ पच्चक्खाण०४ ] ओघं । संजलणं पमत्तसंजदस्त कादव्वं । तिण्णिआउ० ओघं० । तिरिक्खगदिणामाए पणवीस संजुत्ताणं च । मणुसगदि पंचगं आदाउज्जीवं सोधम्मभंगो । देवगदि ०४ सत्थाणे कादव्वं । आहारदुगं ओघं । पंचिदियणामाए वड्डी अवट्ठाणं देवगदिभंगो । हाणी मदो देवो जादो तीसदिणामाए बंधगो जोदो तप्पाऔग्गजह० पडिदो तस्स उक्क० हाणी । एवं समचदु०-पसत्थ० सुभग- सुस्सर-आदें । णसं० सत्थाणे कादव्वं । चदुसंठा०पंच संघ० - अप्पसत्थ० - दुस्सर० सोधम्मसंगो । एवं पम्माए वि । णवरि णामाणं तिरिक्खगदि - मणुसगदिसंजुत्ताणं सहस्सारभंगो । एवं देवगादिसंजुत्ताणं आभिणि० भंगो | एवं सुका वि । वरि सम्मत्तपगदीणं ओघभंगो । सेसाणं आणदभंगो । अट्ठावीसदिसंजुत्ताणं आभिणि० भंगो । भवसिद्धिया० ओघभंगो ।
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स्वस्थानमें कहना चाहिए। छह दर्शनावरण और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो आठ प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला अन्यतर सम्यग्दृष्टि जीव सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करने लगा, वह उनकी उत्कृष्टि वृद्धिका स्वामी है। उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट योगवाला जीव मरा और जघन्य योगस्थानमें गिर पड़ा, वह उनको उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । इनका उत्कृष्ट अवस्थान स्वस्थान में कहना चाहिए । अप्रत्यख्यानवरणचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। संज्वलनका भङ्ग प्रमत्तसंयत के कहना चाहिए। तीन आयुओंका भङ्ग ओघके समान है । तिर्यश्वगतिकी उत्कृष्ट वृद्धि आदिका स्वामित्व नामकर्मकी पच्चीस प्रकृतियोंसे संयुक्त हुए जीवके होता है। मनुष्यगतिपञ्चक, आतप और उद्योतका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है । देवगतचतुष्कका भङ्ग स्वस्थानमें कहना चाहिए । आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है । पचेन्द्रियजातिकी वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग देवोंके समान है । तथा उत्कृष्ट हानि - जो जीव मरा और देव होकर नामकर्मकी तीस प्रकृतियोंके साथ बन्धक होकर तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थान में गिरा, वह उसकी उत्कृष्टि हानिका स्वामी है । इसी प्रकार समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी अपेक्षा जानना चाहिए। नपुंसकवेदका भङ्ग स्वस्थानमें कहना चाहिए । चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका भङ्ग सौधर्मकल्प के समान है । इसी प्रकार पद्मलेश्या में भी चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिसंयुक्त नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग सहस्रार कल्पके समान है। इसी प्रकार देवगतिसंयुक्त प्रकृतियोंका भङ्ग अभिनिबोधिक ज्ञानी जीवोंके समान है । इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वप्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग आनतकल्पके समान है । देवगति आदि अट्ठाईस संयुक्त प्रकृतियोंका भङ्ग अभिनिबोधिक ज्ञानी जीवोंके समान है । भव्य जीवों में ओघके समान भङ्ग है ।
१. ता० प्रतौ-संजुत्ताणं च मणुसगदिपंचगं' इति पाठः । २. ता० प्रतौ 'आदे० णवुंस०' इति पाठः । For Private & Personal Use Only
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