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महाबंधे पदेसबंधाहियारे विधबंधगो जादो तस्स उक्क० हाणी । एवं सव्वाओ णामाओ। णवरि आहारदुर्ग तित्थ० ओघ । अथिर-असुभ-अजस० तिण्णि वि पंचिंदियभंगो। णवरि सत्तविधबंधगस्स कादब्बं । एवं ओधिदंस०-सम्मा०-खइग०-वेदगस०-उवसमसम्मादिट्ठीसु। मणुसगदिपंचगस्स वड्डी हाणी अवट्ठाणं सत्थाणे कादव्वं ।
२५२. मणपजवे० सत्तण्णं क० मणुसगदिभंगो । णामाणं देवगदिआदियाणं बड्डी हाणी अवट्ठाणं आभिणिभंगो। णवरि सत्थाणे हाणी णेदव्वं । एवं सव्वाणं णामाणं । अथिर-असुभ-अजस० सत्तविधबंध० कादव्वं । एवं संजद-सामाइ०-छेदो०परिहार० ।
२५३. सुहुमसं० छण्णं क० उक्क० वड्डी कस्स० ? यो तप्पाऑग्गजह जोगद्वाणादो उक्क. जोगट्ठाणं गदो तस्स उक्क० वड्डी। उक्क० हाणी कस्स० १ उक्कस्सगादो जोगट्ठाणादो पडिभग्गो तप्पाओग्गजह जोगट्ठाणे पडिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । संजदासंजद० परिहारभंगो ।
२५४. असंजदेसु पंचणा०-थीणगि०३-दोवेद०-मिच्छ०-अणंताणु४-इत्थि०पञ्चेन्द्रियजातिकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। इसी प्रकार नामकर्मको सब प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिके तीनों ही पदोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि सात प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाले जीवके कहना चाहिए। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यगतिपञ्चककी वृद्धि, हानि और अवस्थानका भङ्ग स्वस्थानमें कहना चाहिए।
- २५२. मनःपर्ययज्ञानी जोवोंमें सात कर्मो का भङ्ग मनुष्योंके समान है। नामकर्मको देवगति आदिकी वृद्धि, हानि और अवस्थानका भङ्ग आभिनिबोधिकज्ञानी जीवांके समान है। इतनी विशेषता है कि हानि स्वस्थानमें ले जानी चाहिए। इसी प्रकार नामकर्मकी सब प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिए । अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिकी वृद्धि आदि सात प्रकारके कर्मों का बन्ध करनेवाले जीवके कहनी चाहिए। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदेपस्थापनासंयत 'और परिहारविशुद्धिसंयत जीपोंके जानना चाहिए।
- २५३. सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंमें छह कर्मोकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हुआ है,वह उनकी. उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट योगस्थानसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानमें गिरा है,वह उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । संयतासंयत जीवोंमें परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान भङ्ग है।
२५४. असंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गोत्र और पाँच अन्तरायका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके
१. ता०प्रती 'उक्कसि [ या ] हाणी।' इति पाठः। २. ता०प्रतौ ‘एवं ओधिदं० । सम्मा०' इति पाठः । ३. ताप्रती 'परिहार० सुहुमसं० छण्णं' इति पाठः ।
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