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________________ खेत्तपरूवणा ४. पुढवि०-आउ०-तेउ०-बादरपुढवि०-आउ०-तेउ० सव्वपगदीणं उक० लोग० असंखें । अणु० सव्वलो० । णवरि वादरेसु सुहुमसंजुत्ताणं उक्क० लोग० असंखें । अणु० सव्वलो० । तससंजुत्ताणं उक्क. अणु० लोगस्स असंखें । बादरपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो । बादरअपज्जत्ताणं एइंदियसंजुत्ताणं उक्क० अणु० सव्वलो० । सेसाणं उक्क० अणु० लोग० असंखें । एवं वाउकाइगस्स वि । णवरि यम्हि विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मारणान्तिक समुद्भातके समय बादर एकेन्द्रिय जीवोंके और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सब एकेन्द्रियोंके सम्भव है, इसलिए इनका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र कहा है। मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है,यह स्पष्ट ही है । विशेष खुलासा ओघप्ररूपणाके समय कर आये हैं। एकेन्द्रियों में मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अनन्त जीव करते हुए भी वे लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें ही पाये जाते हैं, इसलिए यह क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है,पर इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध स्वस्थानस्थित सब एकेन्द्रियोंके सम्भव है, इसलिए यह क्षेत्र सब लोक कहा है। इनके सिवा जो शेष प्रकृतियाँ बचती हैं उनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध, जो बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव स्वस्थान स्थित हैं उन्हींके होता है, इसलिए इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहा है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध स्वस्थानगत सब एकेन्द्रियोंके सम्भव है, इसलिए यह क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण कहा है। बादर एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें यह क्षेत्र प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए इसे एकेन्द्रियोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे जीव जो मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका बन्ध करते हैं, उनका स्वस्थान स्थित क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही पाया जाता है, क्योंकि वायुकायिक जीव इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करते, इसलिए इन तीन मार्गणाओंमें उक्त तीन प्रकृतियों और मनुष्यायु इन चार प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। पर त्रससंयुक्त अन्य प्रकृतियोंका बादर वायुकायिक जीव भी बन्ध करते हैं, इसलिए उनका उत्कृए और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है। सब सूक्ष्म जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए उनमें मनुष्यायुके सिवा अन्य सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र कहा है । यहां भी मनुष्यायुका दोनों पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है,यह स्पष्ट ही है। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और वावर अग्निकायिक जीवोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि बादरोंमें सूक्ष्मसंयुक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है तथा त्रससंयुक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इनके बादर पर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। इनके बादर अपर्याप्तकोंमें एकेन्द्रियसंयुक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है और शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार बायुकायिक जीवों में भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जहाँ लोकके असंख्यातवें भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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