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महाबंधे पदेसबंधाहियारे २४६. णवंसगे पंचणा० वड्डी अवट्ठाणं सत्थाणे । हाणी मदो सुहुमणिगोदजीवेसु उववण्णो । सम्मादिट्ठिपगदीणं वड्डी अवट्ठाणं सत्थाणे । हाणी अण्णदरस्स मदस्स वा सत्थाणे । णवरि णिद्दा-पयला०-अट्ठक०-छण्णोक० ओघं । सेसाणं सत्थाणे । णामाणं ओघभंगो । अवगदवेदे ओघभंगो । णवरि सत्थाणे हाणी। कोधादि०३ सत्तण्णं' क. णqसगभंगो । णामाणं ओघभंगो । लोमे ओघं।
२५०. मदि-सुद० पंचणा० उक्क० वड्डी कस्स० ? यो अढविधबंधगो तप्पाऑग्गजह जोगट्ठाणादो उक्क० जोगट्ठाणं गदो सत्तविधबंधगो जादो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स०? जो सत्तविधबंधगो उक्क० जोगी मदो सुहुमणिगोदजीवअपजत्तएसु उववण्णो तप्पाऑग्गजह जोग० पडि० तस्स० उक्क. हाणी। अवट्ठाणं सत्थाणे णेदव्वं । णवदंसणा०-सादासाद०-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०--दोगोद०-चदुआउ० सव्वाओ णामपगदीओ ओपो भवदि । एवं मदिभंगो अभवसि०-मिच्छा०-असण्णि त्ति विभंगे पंचणाणावरणादीण तिण्णि वि सत्थाणे कादव्वाणि ।
२५१. आभिणि-सुद-ओधि० पंचणा०--चदुदंस०--सादा०-जस०-उच्चा०-पंचंत०
२४६. नपुंसकबेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान स्वस्थानमें कहने चाहिए । तथा उत्कृष्ट हानि जो जीव मरकर सूक्ष्म निगोद जीवोंमें उत्पन्न हुआ है,उसके कली चाहिए। सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वद्धि और अवस्थान स्वस्थानमें कहने चाहिए। तथा उत्कृष्ट हानि अन्यतर मरे हुए जीवके अथवा स्वस्थानमें कईनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि निद्रा, प्रचला, आठ कषाय और छह नोकषायका भङ्ग ओघके समान है। शेषका स्वामित्व स्वस्थानमें कहना चाहिए । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि हानि स्वस्थानमें कहनी चाहिए । क्रोधादि तीन कषायवाले जीवोंमें सात कर्मो का भङ्ग नपुंसकवेदवाले जीवोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । लोभ कषायवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है।
२५०. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला जो जीव तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हो सात प्रकारके कोका बन्ध करने लगा,वह उनकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त जो जीव मरा और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर तत्प्रायोग्य योगस्थानमें गिरा,वह उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। इनके उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी स्वस्थानमें ले जाना चाहिए । नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, दो गोत्र, चार आयु और सब नामकर्मको प्रकृतियाँ इनका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार मत्यज्ञानियोंके समान अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें जानना चाहिए । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादिके तीनों ही पद स्वस्थानमें कहने चाहिए।
२५१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायको उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और
1. आ०प्रतौ कोधादि०४सत्तण्णं' इति पाटः। २. ता प्रतौ 'तस्स उक्क० । हाणी' इति पाठः। ३. ता०प्रतौ 'दोगदि० चदुआउ. 'इति पाठः।
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