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________________ सिरि-भगवंतभूदवलिभडारयपणीदो महाबंधो चउत्थो पदेसवंधाहियारो खेतपरूवणा १. खेतं दुविहं-जहणणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० तिण्णिआउ०-वेउव्वियछ०-आहार०२-तित्थ० उक्क० अणु० पदे०बं० केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। सेसाणं कम्माणं उक्क० पदे०७० केव० ? लोगस्स असंखें । अणु० पदे०७० केव० ? सव्वलोगे । एवं ओवभंगे तिरिक्खोघो कायजोगि-ओरालि०-ओरालिमि०-कम्मइ०-णस०-कोधादि०४-मदि-सुद०-असंज०अचक्खु०-किण्ण०-णील०-काउ०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छा०-असण्णि०-आहार०अणाहारग त्ति । क्षेत्रप्ररूपणा १. क्षेत्र दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे तीन आयु, वैक्रियिकषट्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी,औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-ओघसे सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार संज्ञी जीव और तीन आयु आदि बारह प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध किन्हींका असंज्ञी जीव आदि तथा किन्हींका संज्ञी जीव करते हैं, इसलिए सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र और तीन आयु आदिके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । यद्यपि मनुष्यायुका बन्ध एकेन्द्रिय आदि भी करते हैं,पर ऐसे जीव असंख्यातसे अधिक नहीं होते और इनका क्षेत्रलोकके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे भी उतना ही क्षेत्र कहा है। उक्त बारह प्रकृतियोंके सिवा शेष प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्वलोक है,यह स्पष्ट ही है। क्योंकि इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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