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________________ भुजगारबंधे अपाबहुआणुगमो १६३ २१४, मणुसेसु पंचणा'-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-ओरा०तेजा-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्त०। अवढि० असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज० विसे । सेसाणं ओघं । णवरि संखेंजरासीणं आहारसरीरभंगो । एवं मणुसपञ्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि संखेंजगुणं कादव्वं । सव्वअपजत्तसव्वदेवाणं सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं च णिरयभंगो। णवरि सवढे संखेंज कादव्यं । २१५. पंचिंदि०-तस०२ पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-तेजा०क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-तित्थ०-पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवढि० असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज० विसे० । सेसाणं सव्वत्थोवा अवट्टि । अवत्त० असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज. विसे० । आहारदुर्ग ओघ । २१६. पंचमण-तिण्णिवचि० पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुं०भङ्ग ओघके समान है । सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भङ्ग ओघसे आहारकशरीरके समान है। २१४. मनुष्योंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यों में जिन प्रकृतियोंका संख्यात जीव बन्ध करते हैं, उनका भङ्ग ओघसे आहारकशरीरके समान है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यातगुणा करना चाहिए । सब अपर्याप्त, सब देव, सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है-सर्वार्थसिद्धिमें संख्यात करना चाहिए। २१५. पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थकर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । शेष प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। २१६. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, १. ता०प्रतौ 'ओघं । मणुसेसु पंचणा०' आ०प्रतौ 'ओचं आहारसरीरभंगो । पंचणा०' इति पाठः । २. आ प्रतौ 'भयदु. तेजाक०' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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