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________________ भुजगारबंधे अप्पाबहुआणुगमो १६१ पुधत्तं० । एवं कम्मइ०-अणाहार० । एवं एदेण बीजेणं याव सण्णि त्ति णेदव्वं । एवं अंतरं समत्त। भावपरूवणा २१०. भावाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० सव्वपगदीणं भुज०अप्प०-अवढि०-अवत्त०बंधगे ति को भावो ? ओदइगो भावो। एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्वं । एवं भावो समत्तो। अप्पाबहुअपरूवणा २११. अप्पाबहुगाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे०। ओघे० पंणा०-णवदंसणामिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुं०-ओरालि०-तेजो०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप-णिमि०-पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्तव्वबंधगा । अवडिदबंधगा अणंतगुणो। अप्प०७० असंखेंगु० । भुज. प्रमाण है । इसी प्रकार कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए । इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार संज्ञी मार्गणा तक ले जाना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ कुछ स्फुट सूचनाएँ मात्र दी हैं। नरकमें दूसरे व तीसरेमें जो मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि होकर पुनः तीर्थक्कर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ करे ऐसा जीव कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके अन्तरसे उत्पन्न हो सकता है, इसलिए यहाँ तीर्थकर प्रकृतिके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इसीप्रकार अन्य मार्गणाओंमें इस प्रकृतिके अवक्तव्यपद का जो अन्तर कहा है,वह यहाँ उतने अन्तरकालसे होता है,ऐसा जानना चाहिए। शेष प्ररूपणा विचारकर लगा लेना चाहिए । यहाँ बीजरूपसे कही गई सूचनानुसार विस्तार कर लेना चाहिए । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। भाव २१०. भावानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका कौन-सा भाव है ? औदयिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार भाव समाप्त हुआ। अल्पबहुत्व ___२११. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे १.ताप्रती एवं अंतरं समत्तं' इति पाठो नास्ति । २. ता०प्रती एवं भावो समत्तो' इति पाठो नास्ति । ३. आ०प्रतौ 'अवत्तव्वबंधगा य । अवहिदबंधगा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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