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________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो णवरि मिच्छ० अवत्त० ऍकारस० । देवगदिपंचग० खेत्तभंगो। . १८७. इत्थिवेदेसु पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत० तिण्णिपदा अट्टचों सव्वलो०। थीणगिद्धि०३-अणंताणु४-णबुंस०-तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड०-तिरक्खाणु०थावर-भग-अणादें०-अजस०-णीचा० तिण्णिपदा अट्ठचों सव्वलो० । अवत्त० अट्ठचों। [णवरि अजस० अवत्त० अट्ठ-णवचों।] णिद्दा-पयला-अट्ठक०-भय-दुगुं०-तेजा०क० -वण्ण०४-अगु०४-पजत्त-पत्ते०-णिमि० तिण्णिपदा अट्ठचों सव्वलो० । अवत्त० खेंत्तभंगो। सादासाद०-चदुणोक०-थिराथिर-सुभासुभ० सव्वपदा अट्ठों सव्वलो० । मिच्छ० तिण्णिपदा साद०भंगो । अवत्त० अट्ठ-णव० । इत्थि०-पुरिस०-दोआउ०-मणुस०जीवों ने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने प्रसनालीके कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा देवगतिपञ्चकके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-कार्मणकाययोगी जीवों का स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवालो प्रकृतियों के भुजगारपदके बन्धक जीवों का और अन्य प्रकृतियों के भुजगार और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। मात्र इस नियमकी कुछ प्रकृतियाँ अपवाद हैं। यथा इस योगमें ऊपर छह और नीचे पाँच इस प्रकार कुछ व राजूप्रमाण क्षेत्रके भीतर ही मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद करनेवाले जीव पाये जाते हैं, इसलिए मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । तथा जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य उत्तम भोगभूमिके मनुष्यों और तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होते हैं,उनके व जो नारकी और देव सम्यक्त्वके साथ मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं, उनके इस योगमें देवगुतिपञ्चकका बन्ध होता है। ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, अतः यह क्षेत्रके समान कहा है। १८७. स्त्रीवेदवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि अयशःकीर्तिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। निद्रा, प्रचला,आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभके सब पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सातावेदनीयके समान है। तथा इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे १ ता०आ प्रत्योः 'भयदुगुं ओरा० ते० क०' इति पाठः । २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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