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________________ १६८ महाबंधे पदेसबंधाहियारे तिण्णिपदा अट्ठ-णव० । अवत्त० अgचों । तित्थ० तिण्णिपदा अट्टचों । अवत्त० खेत्तभंगो। १८६. कम्मइ० धुविगाणं भुज० सव्वलो० । सेसाणं भुज-अवत्त० सव्वलो । वसनालोके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्करप्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने बसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है, तथा इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ—यहाँ प्रथम दण्डकमें दो प्रकारको प्रकृतियाँ ली गई हैं। पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तराय ये तो ध्रुववन्धिनो प्रकृतियाँ हैं । इनके यहाँ केवल तीन ही पद होते हैं। शेष नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्र ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं। इनके यहाँ चारों पद सम्भव हैं । यहाँ तीन पदों की अपेक्षा तो पूर्वोक्त दोनों प्रकारको प्रकृतियों का स्पर्शन कहा है और अवक्तव्यपदकी अपेक्षा दूसरे प्रकारकी प्रकृतियों का स्पर्शन कहा है । देवों के विहारादिके समय भी स्त्यानगृद्धित्रिक आदिका अवक्तव्यपद सम्भव है, इसलिए इनके इस पदवालों का सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। आगे स्त्रीवेद आदिके तथा एकेन्द्रियजाति और आतपके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा, दो आयु आदिके सब पदों की अपेक्षा और तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदों की अपेक्षा स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहनेका यही कारण है। प्रथम दण्डकमें कही गई इन सब प्रकृतियो के तीन पद देवों के विहार आदिके समय तो सम्भव हैं ही। साथ ही नीचे छह और ऊपर सात इस प्रकार कुछ कम तेरह राजूका स्पर्शन करते समय भी सम्भव हैं, इसलिए इन सब प्रकृतियों के तीन पदी की अपेक्षा सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। सातावेदनीय आदिके सब पदों की अपेक्षा और मिथ्यात्वके तीन पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन इसीप्रकार कहनेका यही कारण है। देवों के विहारादिके समय तथा नीचे कुछ कम पाँच और ऊपर कुछ कम सात राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करते समय भी मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद सम्भव है, इसलिए इसके इस पदवाले जीवों का स्पर्शन सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद आदिके तीन पदों की अपेक्षा यह स्पर्शन इसी प्रकार प्राप्त होनेसे उक्त प्रमाण कहा है। मात्र यहाँ कुछ कम बारह राजूसे नीचे कुछ कम छह और ऊपर कुछ कम छह राजू लेने चाहिए। कारणका विचार कर लेना चाहिए। देवों में विहार आदिके समय एकेन्द्रियजाति और आतपके तीन पद तो सम्भव हैं ही। साथ ही एकेन्द्रियों में इनके मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी ये पद सम्भव हैं, इसलिए इनके तीन पदवाले जीवों का स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। वैक्रियिककाययोगमें दूसरे और तीसरे नरकमें ही तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद सम्भव है, इसलिए इसके अवक्तव्यपदवाले जीवों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह क्षेत्रके समान कहा है । शेष कथन सुगम है। १८६. कार्मणकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगारपदके बन्धक जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अवक्तव्य पदके बन्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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