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________________ १६२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १८१. एइंदिय-पंचकायाणं खेत्तभंगो । १८२. पंचिंदि०-तस०२ पंचणा०-छदंसणा०-अट्ठकसा०-भय-दुगु-तेजा-क०वण्ण०४-अगु०४-पजत्तं-पत्ते-णिमि-पंचंत० भुज०-अप्प-अवढि० अट्ठों. सव्वलो। प्रमाण कहा है । मात्र स्त्यानगृद्धि आदिका अवक्तव्यपद एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्भातके समय सम्भव न होनेसे इसकी अपेक्षा स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण • कहा है। यहाँ सातावेदनीय आदि दस प्रकृतियाँ ये हैं-दो वेदनीय, चार नोकपाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ । अब शेष रहीं स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र सो इनका एकेन्द्रियामें मारणान्तिक समुद्धात करते समय बन्ध नहीं होता,पर देवोंके विहारवत्स्वस्थानके समय बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके सब पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। अलग-अलग देवोंमें अपना-अपना स्पर्शन जानकर इस विधिसे सब प्रकृतियोंके यथासम्भव पदोंका स्पर्शन ले आना चाहिए। १८१. एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें क्षेत्रके समान भङ्ग है। विशेषार्थ—यहाँ एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिकोंमें क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है। विशेष खुलासा इस प्रकार है - एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा इनके बादर और बादर अपर्याप्त, बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक और इनके अपर्याप्त सब वनस्पतिकायिक और निगोद तथा सब सूक्ष्म इनमें सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन और क्षेत्रमें अन्तर नहीं है, इसलिए उसे क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र कुछ प्रकृतियोंके स्पर्शनमें फरक है । उसे यहाँ यद्यपि मूलमें नहीं कहा है, फिर भी विशेष रूपसे जान लेना चाहिए । यथा-मनुष्यायुके सब पदोंके बन्धक जीव थोड़े होते हैं, इसलिए इसके सब पदोंकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण जानना चाहिए। उद्योत और यश कीर्तिके सब पद तथा बादरके भुजगार आदि तीन पद ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धातके समय भी सम्भव हैं, इसलिए यह स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण जानना चाहिए। किन्तु बादरका अवक्तव्यपद ऐसे समयमें सम्भव नहीं है, इसलिए इसके इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण जानना चाहिए । अयशःकीर्तिके तीन पद सब अवस्थाओं में सम्भव हैं, इसलिए इसके इन पदोंकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन जानना चाहिए । पर इसके अवक्तव्यपदका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। फिर भी ये जीव जब ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं, तब भी इसका अवक्तव्यपद होता है, इसलिए इस अपेक्षासे इसका भी स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण जानना चाहिए। १८२. पश्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनके १ आ.प्रतौ 'वण्ण ४ पजत्त' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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