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________________ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो १३७ णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुं०-ओरालि०-तेजा-क०-वण्ण०४--अगु०४-तस०४णिमि०-तित्थ०-पंचंत० भु० णत्थि अंतरं। सेसाणं भुज० णत्थि अंतरं। अवत्त० जह उक्क० अंतो० । मिच्छत्त० अवत्त० णत्थि० अंतरं । आहारमि० वेउव्वियमिस्स०भंगो । णवरि आउ० भुज०-अवत्त० णत्थि अंतरं ।। १६३. कम्मइग० धुवियाणं देवगदिपंच० भुज० णत्थि अंतरं । सेसाणं भुज०अवत्त० णत्थि अंतरं। कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर,कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचाक, निर्माण, तीर्थङ्कर और पांच अन्तरायके भुजगार पदका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंके भुजगारपदका अन्तरकाल नहीं है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है। इतनी विशेषता है कि यहां मिथ्यात्वप्रकृतिका अवक्तव्यपद सम्भव है पर उसका अन्तरकाल नहीं है। आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें आयुके भुजगार और अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोगमें बँधनेवाली प्रकृतियोंकी व्यवस्था मनोयोगी जीवोंके समान बन जाती है, इसलिए इनमें मनोयोगी जीवोंके समान जाननेकी सूचना को है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें पांच ज्ञानावरणादिका एक भुजगारपद होता है, इसलिए उसके अन्तरकालका निषेध किया है। मात्र इनमेंसे मिथ्यात्व प्रकृतिका यहां अवक्तव्यपद भी सम्भव है, क्योंकि जो सासादनसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वमें जाता है उसके मिथ्यात्वप्रकृतिका यह पद होता है। पर दूसरी बार इस प्रकार यहां इसके अवक्तव्यपदकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, इसलिए अन्तमें इस प्रकृसिके अवक्तव्यपदके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष जितनी परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं उनका यहाँ पर भुजगारपद तो एक बार ही प्राप्त होता है, इसलिए उसके अन्तरकालका निषेध किया है। हाँ अवक्तव्यपदकी प्राप्ति दो बार अवश्य सम्भव है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। आहारकमिश्रकाययोगमें अपनी बन्धको प्राप्त होनेवाली अन्य सब प्रकृतियोंका भङ्ग तो वैक्रियिकमिश्रकाययोगके समान बन जाता है पर यहाँ आयुकर्मका भी बन्ध सम्भव है और उसके दो पद भी सम्भव हैं, इसलिए इस विशेषताका अलगसे निर्देश किया है। यहाँ देवायुके दोनों पदोंका अन्तरकाल नहीं होता, क्योंकि इस योगके कालमें दो बार आयु बन्धका प्रारम्भ सम्भव नहीं है, इसलिए आयुके दोनों पदोंके अन्तरकालका निषेध किया है। १६३. कार्मणकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके और देवगतिपञ्चकके भुजगारपदका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-कार्मणकाययोगमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका और देवगतिपश्चकका बन्ध होता है उनका एक मात्र भुजगार पद होता है, इसलिए इसके अन्तरकालका निषेध किया है। इनके सिवा शेष सब प्रकृतियां परावर्तमान हैं, अतः उनके भुजगार और अवक्तव्य ये दो पद तो सम्भव हैं, पर उनका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता, इसलिए उनके अन्तरकालका निषेध किया है । कारण स्पष्ट है। १ ता० अ०प्रत्योः 'अंतो।...'अवत्त०' इति पाठः। १८ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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