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________________ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो १२६ विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य 'अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त तथा अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण जैसा ओघमें ज्ञानावरणादिका घटित करके बतला आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए । बादर एकेन्द्रियोंमें और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें इन पदोंका और सब अन्तर काल तो इसी प्रकार है, पर इनके अवस्थित पदके उत्कृष्ट अन्तरमें फरक है, क्योंकि इन जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति क्रमसे कर्मस्थितिप्रमाण और संख्यात हजार वर्षप्रमाण है, अतः इन दो प्रकारके एकेन्द्रिय जीवोंमें इन प्रकृतियोंके अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। मनुष्यगतित्रिकके एकेन्द्रियों में चार पद सम्भव हैं और ओघसे इनके चारों पदोंका अन्तरकाल एकेन्द्रियोंकी मुख्यतासे कहा है, इसलिए यहाँ उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है । इन पदोंके अन्तरकालका स्पष्टीकरण ओघप्ररूपणाके समय किया ही है, इसलिए इसे वहाँसे जान लेना चाहिए। मात्र बादर एकेन्द्रियों और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें इन प्रकृतियोंके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः कर्मस्थिति प्रमाण और संख्यात हजार वर्षप्रमाण ही प्राप्त होगा। कारणका निर्देश पूर्वमें किया ही है। एकेन्द्रिय और उनके अवान्तर भेदोंमें जिस प्रकार अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यगतित्रिकका बन्ध नहीं होता, वह स्थिति तिर्यश्चगतित्रिकके विषयमें नहीं है, इसलिए उक्त तीन प्रकारके एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चगतित्रिकके भुजगार आदि तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान ही बन जाता है, इसलिए वह ज्ञानावरणके समान कहा है। साथ ही उनका यहाँ अवक्तब्यपद भी सम्भव है। उसमें भी एक तो ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और दूसरे अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें इनका निरन्तर बन्ध होता रहता है, अतः यहाँ इनके अवक्तव्यपदका उक्त तीन प्रकारके एकेन्द्रियोंमें जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे असंख्यात लोक प्रमाण, कर्मस्थितिप्रमाण और संख्यात हजार वर्षप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है । शेष जितनो परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं,उनका भुजगार अदि तीन पदोंकी अपेक्षा भङ्ग ज्ञानावरणकेसमान कहनेका कारण स्पष्ट है । पर इनका यहाँ अवक्तव्यपद भी सम्भव है। यतः अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं होता और ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर भी अन्तमुहूर्त ही प्राप्त होगा, अतः इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। अब रहीं तियश्चायु और मनुष्यायु सो तिर्यश्चायुके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक भवकी अपेक्षा भी प्राप्त हो जाता है.पर उत्कृष्ट अन्तर दो भवकी अपेक्षा प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए इनसे आदिके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और तीनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष कहा है। यहाँ बाईस हजार वर्षकी आयुवाले उक्त तीन प्रकारके एकेन्द्रियोंके प्रथम त्रिभागमें तीन पद करावे । उसके बाद मरकर इतनी ही आयु प्राप्त कराकर जीवनमें अन्तमुहूर्त काल शेष रहने पर आयुबन्ध कराकर ये तीन पद करावे और इस प्रकार इन तीन पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आवे । तथा इनमें तिर्यश्च होते रहनेसे एकेन्द्रियोंमें जगश्रोणिके असंख्यातवें भागके अन्तरसे बादर एकेन्द्रियोंमें कर्मस्थितिप्रमाण कालके अन्तरसे और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्षके अन्तरसे भी सम्भव है, इसलिए इनमें तिर्यश्चायुके इस पदका उक्त कालप्रमाण अन्तर कहा है । मात्र इनमें मनुष्यायुके चारों पदोंका अन्तर एक भवके आश्रयसे ही सम्भव है, इसलिए इनमें इसके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और सब दोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात हजार वर्षप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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