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________________ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो १२७ तिण्णिपदा णाणाभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेसाग० सादिः । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो अंतरं णेदव्वं । है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । इसी प्रकार सब देवोंमें अपना-अपना अन्तरकाल ले जाना चाहिए। विशेषार्थ देवोंकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है, इसलिए यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । देवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ ये हैं-पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण और पाँच अन्तराय । स्त्यानगृद्धि आदिका सम्यग्दृष्टिके वन्ध नहीं होता, इसलिए इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरप्रमाण कहा है । यहाँ भवके प्रारम्भमें चारों पदोंको करावे । बादमें सम्यग्दृष्टि होकर कुछ कम इकतीस सागर हो जाने पर अन्तमें पुनः मिथ्यात्वमें ले जाकर चार पद कराकर यह अन्तरकाल ले आवे। दो वेदनीय आदिके भजगार आदि तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है । ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे उक्त कालप्रमाण कहा है। पुरुषवेद आदिका सम्यग्दृष्टिके भी बन्ध होता है, इसलिए इनके भुजगार आदि तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान बन जनिसे वैसा कहा है। पर सम्यग्दृष्टिके ये निरन्तर बन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए उसके इनका अवक्तव्यपद सम्भव नहीं है । हाँ,जिस मिथ्यादृष्टिने इनके बन्धका प्रारम्भ कियो और मध्यमें सम्यग्दृष्टि रह कर अन्तमें मिथ्यादृष्टि होकर तथा इन्हें सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे अन्तरित करके पुनः बन्ध प्रारम्भ किया, उसके इनका अवक्तव्य बन्ध और उसका अन्तरकाल दोनों बन जाते हैं । इस तरह अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम इकतीस सागर होनेसे वह उक्त काल प्रमाण कहा है। देवों और नारकियोंमें आयुबन्धके नियम एक समान हैं, इसलिए यहाँ दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान कहा है। तिर्यश्चगतित्रिकका बन्ध सहस्रार कल्प तक ही होता है, इसलिए इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा है। चारों पदोंका अन्तरकाल विचारकर घटित कर लेना चाहिए । मनुष्यगतिद्विकका बन्ध सब देवोंके सम्भव है.पर इनकी सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध सहस्रार कल्प तक ही होता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा है। यहाँ भी प्रारम्भमें और अन्तमें मिथ्यादृष्टि रखकर इनका अवक्तव्यबन्ध कराकर यह अन्तरकाल ले आवे। आगे इन दोनों प्रकृतियोंके प्रारम्भके तीन पद होते हैं, अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए यहाँ अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान प्राप्त होनेसे उसके समान कहा है। एकेन्द्रियजाति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध ऐशान कल्प तक ही होता है, इसलिए इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर प्राप्त होनेसे वह उक्त काल प्रमाण कहा है। यहाँ भी मध्यमें साधिक दो सागर तक सम्यग्दृष्टि रखकर और प्रारम्भमें व अन्तमें मिथ्यात्वमें इनके चारों पद कराकर यह अन्तर काल ले आवे । इतनी विशेषता है कि अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर काल लानेके लिए सम्यग्दृष्टि होनेकी आवश्यकता नहीं है। अन्यत्र भी यह विशेषता जान लेनी चाहिए । पञ्चेन्द्रियजाति आदि सानत्कुमार कल्पसे निरन्तरबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं। किन्तु वहाँ इनका अवक्तव्यपद सम्भव नहीं है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है। इनके शेष पद ज्ञानावरणके समान सम्भव हैं,यह स्पष्ट ही है। देवोंके अवान्तर भेदोंमें अपना-अपना भन्तरकाल जानकर वह घटित कर लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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