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भुजगारबंधे समुक्त्तिणा कम्मइ०-अणहार० धुवियाणं देवगदिपंचगस्स य अत्थि भुज० । सेसाणं अस्थि भुज०. अवत्तव्व०।
एवं समुकित्तगा समत्ता।
प्रकृतियोंके भुजगारबन्धक जीव हैं। शेष परावर्तमान प्रकृतियोंके भुजगारबन्धक और अवक्तव्यबन्धक जीव हैं। कार्मणकाययोगी और 'अनाहारक जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रक्रतियोंके और देवगतिपञ्चकके भुजगारबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंके भुजगारबन्धक और अवक्तव्यबन्धक जीव हैं।
विशेषार्थ-यहाँ नारकियोंमें जो ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं,उनका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए उनका अवक्तव्यबन्ध सम्भव न होनेसे तीन ही बन्ध कहे । अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंका अवक्तव्यवन्ध भी सम्भव है, इसलिए उनका ओघके समान भङ्ग जाननेकी सूचना की है। सब नारकियों में यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनका निरूपण सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र पहली पृथिवीमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला ऐसा ही मनुष्य मर कर उत्पन्न होता है जो सम्यग्दृष्टि होता है, अतः वहाँ यह प्रकृति भी ध्रुवबन्धिनी होती है, इसलिए वहाँ इसका अवक्तव्यबन्ध सम्भव न होनेसे ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान भङ्ग जाननेकी सूचना की है। तथा दूसरी और तीसरी पृथिवीमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला मनुष्य मिथ्यादृष्टि होकर उत्पन्न होता है, इसलिए वहाँ इसका मिथ्यात्वके कालमें बन्ध नहीं होता। बादमें जब वह सम्यग्दृष्टि हो जाता है,तब पुनःबन्ध प्रारम्भ होता है, इसलिए वहाँ इसका सातावेदनीयके समान अवक्तव्यबन्ध घटित हो जानेसे सातावेदनीयके समान भङ्ग जाननेकी सूचना की है। यह पूर्वोक्त प्ररूपणा बीजपद है। आगे अनाहारक मार्गणातक इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। अर्थात् जिस मार्गणामें जो ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हों, उनके तीन पद और अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंके चार पद जानने चाहिए। मात्र जिन मार्गणाओंमें कुछ विशेषता है उसका अलगसे निर्देश किया है। खुलासा इस प्रकार है-वैक्रियिकमिश्रकाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें एकान्तानुवृद्धियोग होता है, इसलिए इन दो मार्गणाओंमें ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंका केवल भुजगारबन्ध ही सम्भव है, क्योंकि इनमें प्रति समय उत्तरोत्तर योगकी वृद्धि होनेसे इन प्रकृतियों का उत्तरोत्तर प्रदेशबन्ध भी अधिक-अधिक होता है। तथा जो अध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं,उनके भुजगारबन्ध और अवक्तव्यबन्ध ही सम्भव हैं, क्योंकि इन प्रकृतियोंका बन्ध प्रारम्भ होनेके प्रथम समयमें अवक्तव्यबन्ध होता है और द्वितीयादि समयोंमें भुजगारबन्ध होता है। कार्मणकाययोग और अनाहारकमार्गणामें भी इसी प्रकार घटितकर लेना चाहिए। इन दोनों मार्गणाओंमें जिन जीवोंके देवगतिपञ्चकका बन्ध होता है, उनके उन प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध होता रहता है, इसलिए इनमें इन पाँच प्रकृतियोंकी परिंगणना ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के साथ की है।
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई।
१ ताप्रती अस्थि भुज० अवत्तं (त्त० ) इति पाठः । २ ता० प्रतौ 'एवं समुक्कित्तणा समत्ता' इति पाठो नास्ति ।
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