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________________ भुजगारबंधे अट्टपदं १०५ ५० विसे० । दुगु० ज० ५० संखेंजगु० । उवरिं आउगवजा याव मणपञ्जवणाणावरणीय त्ति । मिच्छादिट्ठी० मदि०भंगो। सणीसु मणुसभंगो । असण्णीसु मदिअण्णाणिभंगो । आहारय ओघभंगो । अणाहारय कम्मइयभंगो। एवं जहण्णपरत्थाणअप्पाबहुगं समत्तं । ___ एवं चदुवीसमणियोगद्दारं समत्तं । भुजगारवंधो अट्ठपदं १४४. एत्तो भुजगारबंधे त्ति तत्थ इमं अट्ठपदं-याणि एहि पदेसग्गं बंधदि अणंतरोसक्काविदविदिकंते समए अप्पदरादो बहुदरं बंधदि त्ति एसो भुजगारबंधो णाम । अप्पदरबंधे त्ति तत्थ इमं अट्ठपदं-याणि एण्हि पदेसग्गं बंधदि अणंतरुस्सकाविदविदिक्कते समए बहुदरादो अप्पदरं बंधदि त्ति एसो अप्पदरवंधो णाम । अवट्ठिदबंधे त्ति तत्थ इमं अट्ठपदं-याणि एण्हि पदेसग्गं बंधदि अणंतरोसकाविद-उस्सकाविदविदिक्कते समए तत्तियं तत्तियं चेव बंधदि त्ति एसो अवडिदबंधोणाम । अबंधादो बंधो एसो अवत्तव्वबंधो णाम । एदेण अट्ठपदेण तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुक्कित्तणा याव अप्पाबहुगे त्ति ॥ १३ ॥ अधिक है। उससे देवगतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे जुगुप्साका जघन्यप्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । इससे आगे आयुकर्मको छोड़कर मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान अल्पबहुत्व जानना चाहिए। मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। संज्ञी जीवोंमें मनुष्यों के समान भङ्ग है । असंज्ञी जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है तथा अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इस प्रकार जघन्य परस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए। भुजगारबन्ध-अर्थपद १४४. यहाँ से आगे भुजगारबन्धका प्रकरण है। उसके विषयमें यह अर्थपद है-इस समयमें जिन प्रदेशोंका बन्ध करता है, उन्हें अनन्तर पिछले व्यतीत हुए समयमें घटाकर बाँधे गये अल्पतरसे बहुतर बाँधता है, इसलिए यह भुजगारबन्ध कहलाता है। अल्पतरवन्धके विषयमें यह अर्थपद है-इस समय जिन प्रदेशोंको बाँधता है उन्हें अनन्तर पिछले व्यतीत हुए समयमें बढ़ाकर बाँधे गये बहुतरसे अल्पतर बाँधता है, इसलिए यह अल्पतरबन्ध कहलाता है। अवस्थित बन्ध के विषयमें यह अर्थपद है-इस समय जिन प्रदेशोंको बाँधता है उन्हें अनन्तर पिछले समयमें घटाकर या बढ़ाकर बाँधे गये प्रदेशोंके अनुसार उतने ही बाँधता है, इसलिए यह अवस्थितबन्ध कहलाता है। तथा अबन्धके बाद बन्ध होना यह अवक्तव्यबन्ध कहलाता है। इस अर्थपदके अनुसार ये तेरह अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक १३। १ ताप्रती 'इमं याणि' इति पाठः । २ ता प्रतौ 'बंधदि । अणंतरूस्सकाविदविदिक्कते' इति पाठः । १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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