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________________ अप्पाबहुगपरूवणा १०१ णिरय देवग० ज० प० संखेज्जगु० । णिरय-देवाउ० ज० प० संखेज्जगु० | आहार० ज० प० असं० गु० । १३५. अवगदवे ० सव्वत्थोवा केवलणा० ज० प० । केवलदं० ज० पदे० विसे० । दाणत० ज० प० अनंतगु० । लाभंत० ज० प० विसे० । भोगंत० ज० प० विसे० । परिभोगंत० ज० प० विसे० । विरियंत० ज० प० विसे० । मणपज्ज० ज० प० विसे० । अधिणा० ज० प० विसे० । सुदणा० ज० प० विसे० । आभिणि० ज० प० विसे० । माणसंज० ज० प० विसे० । कोधसंज० ज० प० विसे० । मायासंज० ज० प० विसे । लोभसंज० ज० प० विसे० । ओधिदं० ज० प० विसे० । अचक्खुर्द • ज० प० विसे० । चक्खुदं० ज० प० विसे० । जस० उच्चा० ज० प० संखेज्जगु ० । सादा० ज० प० विसे० । O १३६. कोधादि ० ४ ओघं । मदि सुद० णवुंसगभंगो० । णवरि आहारस० णत्थि । विभंगे मूलोघो या केवलदंसणावरणीय त्ति । तदो ओरा० ज० प० अनंतगु० । तेजा० ज० प० विसे० । कम्म० ज० प० विसे० । वेउ० ज० प० विसे० । तिरिक्ख० असंख्यातगुणा है । उससे नरकगति और देवगतिका जघन्य प्रदेशाघ्र संख्यातगुणा है। उससे नरकायु और देवायुका जघन्य प्रदेशाम संख्यातगुणा है। उससे आहारकशरीरका जघन्य प्रदेशाम असंख्यातगुणा है । १३५. अपगतवेदी जीवोंमें केवलज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशाम सबसे थोड़ा है । उससे केवलदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है । उससे दानान्तरायका जघन्य प्रदेशाम अनन्तगुणा है । उससे लाभान्तरायका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है । उससे भोगान्तरायका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे परिभोगान्तरायका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे वीर्यान्तरायका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है । उससे मन:पर्ययज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे अवधिज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे श्रुतज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है । उससे आभिनिबोधिकज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है । उससे मानसंज्वलनका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है । उससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे अवधिदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है । उससे अचक्षुदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशात्र विशेष अधिक है। उससे चक्षुदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य प्रदेशाम संख्यातगुणा है। उससे सातावेदनीयका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है । १३६. क्रोधादि चार कषायवाले जीवों में ओघके समान भङ्ग है । मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में नपुंसकोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें आहारकशरीर नहीं है । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें केवलदर्शनावरणीयके अल्पबहुत्वके प्राप्त होने तक मूलोघके समान भङ्ग है । उससे आगे औदारिकशरीरका जधन्य प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है । उससे तैजसशरीरका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे कार्मणशरीरका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे तिर्यगतिका जघन्य प्रदेशाम For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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