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________________ अप्पाबहुगपरूवणा १२७. देवेसु भवण ० - वाण ० - जोदिसि० पढमपुढविभंगो । सोधम्मीसाणादि या सहस्सार तिरइगभंगो याव कम्मइगसरीर ति । तदो तिरिक्ख- मणुसगदि ० जह० प० संर्खेज्जगु० । जस० अजस० ज० प० विसे० । सेसाणं णिरयभंगो | आणद याव उवरिमगेवज्जा सि एसेंव भंगो। णवरि तिरिक्खाउचदुक्कं णत्थि । १२८. अणुदिस याव सव्वट्ट ति सव्वत्थोवा अपञ्चक्खाणमाणे ज० पदे० । कोधे० ज० प० विसे० । माया० ज० प० विसे० । लोभे० ज० प० विसे० । एवं पच्चक्खाण ०४ । केवलखा० ज० प० वि० । पयला० ज० प० विसे० । णिद्दा० ज० प० विसे० । केवलदं० ज० प० विसे० । ओरा० ज० प० अनंतगु० | तेजा० ज० प० विसे० । कम्म० ज० प० विसे० । मणुस० ज० प० संखैज्जगु० । जस० - अजस ० ज० प० विसे० | दुर्गां ० ज० प० संजगु० । भय० ज० प० विसे० । हस्स- सोगे ० ज० प० विसे० | रबि - अरदि० ज० प० विसे० । पुरिस० ज० प० विसे० । सेसाणं रगभंगो । १२६. पंचिदिए मूलोघो । पंचिंदियपज्जत्तगेसु वि मूलोघो याव सादासादाति । तदो उ० ज० प० असं० गु० | देवगदि० ज० प० संखेज्जगु० । णिश्य 1 ६७ १२७. सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें कार्मणशरीरसम्बन्धी अल्पबहुत्वके प्राप्त होनेतक नारकियोंके समान भङ्ग है। उससे आगे तिर्यश्वगति और मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशाम संख्यातगुणा है। उससे यशःकीर्ति और अयशः कीर्तिका जघन्य प्रदेशाप्र विशेष अधिक है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। आनत कल्पसे लेकर उपरिममैवेयक तकके देवों में यही भन्न है । इतनी विशेषता है कि यहाँ तिर्यश्वगतिचतुष्क नहीं है । १२८. अनुदिशिसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य प्रदेशाम सबसे स्तोक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है । उससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका जघन्य प्रदेशात्र विशेष अधिक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण लोभका जघन्य प्रदेशाघ्र विशेष अधिक है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिए। उससे आगे केवलज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है । उससे प्रचलाका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे निद्राका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे केवलदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशाम अनन्तगुणा है। उससे तैजसशरीरका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे कार्मणशरीरका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशाम संख्यातगुणा है । उससे यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है । उससे जुगुप्साका जघन्य प्रदेशाम संख्यातगुणा है। उससे भयका जघन्य प्रदेशाय विशेष अधिक है । उससे हास्य और शोकका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे रति और अरतिका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। आगे शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। १२६. पचेन्द्रियोंमें मूलोघके समान भङ्ग है । पश्चेन्द्रिय पर्याप्तकों में भी सातावेदनीय और असातावेदनीयकी अपेक्षा अल्पबहुत्व प्राप्त होने तक मूलोघके समान भङ्ग है। उससे आगे १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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