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________________ प्राथमिक हर्षकी बात है कि गत वर्ष महासन्धकी पाँचवीं जिल्द प्रकाशित होनेके पश्चात् लगभग एक ही वर्षमें यह छठी जिल्द प्रकाशित हो रही है। अब इसके पश्चात् महाबन्धको सम्पूर्ण होने में केवल एक और जिल्दकी कमी रही है। उसका भी मुद्रण कार्य चालू है और आशा की जा सकती है कि वह भी शीघ्र पूर्ण होकर प्रकाशमें आ जायगी । जिस तत्परताके साथ यह जैन-साहित्यका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और महान् कार्य सम्पन्न हो रहा है, उसके लिए ग्रन्थके विद्वान् सम्पादक पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री तथा भारतीय ज्ञानपीठके अधिकारी व कार्यकर्ता हमारे व समस्त जिज्ञासु संसारके धन्यवादके पात्र हैं। ___महाबन्धमें वर्णित प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार प्रकारके कर्मबन्धोंमेंसे प्रथम तीन का वर्णन पूर्व प्रकाशित पाँच जिल्दों में समाप्त हो चुका है। प्रस्तुत जिल्दमें प्रदेशबन्ध अधिकारका एक भाग सम्मिलित है। शेष भाग अगली जिल्दमें पूर्ण होकर इस ग्रन्थराजको समाप्ति हो जायगी। कर्मसिद्धान्त जैन दर्शनकी प्रधान वस्तु है। वह उसका प्राण कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। इस विषयका सर्वाङ्गपूर्ण सुव्यवस्थित विस्तारसे वर्णन जैसा इन ग्रन्थों में पाया जाता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं। इसी गौरवके अनुरूप इन ग्रन्थोंकी समाजमें और धर्मायतनोंमें प्रतिष्ठा होगी ऐसा हमें पूर्ण विश्वास है। इन ग्रन्थोंका स्वाध्याय सरल नहीं है। विषयकी गूढ़ताके साथ-साथ पाठ-रचना भी अपनी विलक्षणता रखती है। पाठक देखेंगे कि अधिकांश स्थलोंपर पूरा पाठ न देकर प्रतीक शब्दोंके आगे बिन्दियाँ रख दी गई हैं। यह इसलिए करना पड़ा है कि नहीं तो ग्रन्थका विस्तार द्विरुक्तियों द्वारा बहुत बढ़ जाता। पाठकोंकी सुविधा और ग्रन्थके सौष्टवकी दृष्टिसे यदि पाठ पूरे करके ही प्रकाशित होते तो बहुत अच्छा था। तथापि मूल पाठकी इस कमीकी पूर्ति विद्वान् सम्पादकने अपने अनुवाद द्वारा कर दी है। आशा है कि इस अनुवाद की सहायतासे कर्मसिद्धान्तसे परिचित पाठकोंको विषयके समझने में तथा यदि वे चाहें तो मूलके पाठोंका लुप्त पाठ अनुमान करने में विशेष कठिनाई न होगी । सम्पादकने जो विषय-परिचय आदिमें दे दिया है उससे ग्रन्थको हस्तामलकवत् समझने में सविधा होगी। ग्रन्थकी सम्पादन-सामग्री वही रही है जो पूर्वके भागोंमें और सम्पादन-शैली आदि भी तदनुसार ही। जैसा 'सम्पादकीय में कहा गया है ताम्रपत्र प्रतिका पाठ तो सम्पादकके सन्मुख रहा है, किन्तु मूल ताड़पत्रोंका पाठ नहीं। संकेत स्पष्ट है कि तानपत्र प्रतिका पाठ भी ताड़पत्रोंके पाठके सोलहो आने अनुकूल नहीं है। उसमें जो उस मूल प्रतिसे जानबूझकर पाठ-भेद किये गये हैं, या जो प्रमादसे स्खलन हो गये हैं उनका संकेत व परिमार्जन वहाँ नहीं किया गया। इस प्रकार ताड़पत्र प्रतिसे एक बार पूरे पाठके मिलानकी आवश्यकता शेष है। हम आशा करते हैं कि इस त्रुटिकी पूर्तिका आयोजन अगले भागके समाप्त होते ही किया जायगा, जिससे कि इस प्रकाशनमें पूर्ण प्रामाणिकता आ जाय और इन ताड़पत्रोंकी शब्दरचनाकी दृष्टिसे हमारी चिन्ता मिट जाय । इन बातोंके सम्बन्धमें हमारा जो मत है उसे हम अगले भागके वक्तव्यमें विस्तारसे व्यक्त करेंगे। हीरालाल जैन आ० ने० उपाध्ये ग्रन्थमाला सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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