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________________ कालपरवणा ३५ ए०, उ० अंतो० । एवं सत्तसु पुढवीसु । सत्तण्णं क० पढमाए ज० ज० उ० ए० । अज० [ज०] दसवस्ससह० समऊ०, उक्क० सागरोवम० । विदियाए० ज० ज० उ० ए० । अज ० ज० सागरो०', उक० तिण्णि साग० । एवं णेदव्वं ।। ७३. तिरिक्खोघो एइंदि०-णबुंस-मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खु ०-भवसि०अभवसि०-मिच्छा०-असण्णि० ओघभंगो । णवरि णवंस० अज० ज० ए० । और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें आयुकर्मका काल जानना चाहिये । पहली पृथिवीमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल एक सागर प्रमाण है। दूसरी पृथिवी में जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक सागरप्रमाण है और उत्कृष्ट काल तीन सागर है । इसी प्रकार आगेकी पृथिवियोंमें ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-असंज्ञीके मर कर नरकमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें सात कर्मों का जघन्य प्रदेशबन्ध होता है, अतः यहाँ सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा है। तथा जघन्य भवस्थितिमेंसे इस एक समयके कम कर देने पर अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल प्राप्त होनेसे यह उक्त प्रमाण कही है और इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है, यह स्पष्ट ही है। आयुकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध घोलमान जघन्य योगसे होता है और इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय है, इसलिये आयुकर्मके जघन्य प्रदेशबन्धका यह काल उक्त प्रमाण कहा है । यह सम्भव है कि आयुकर्मका अजघन्य प्रदेशबन्ध एक समय तक होकर दूसरे समयमें घोलमान जघन्य योगके प्राप्त होनेसे जघन्य प्रदेशबन्ध होने लगे, इसलिये इसके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है और इसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, यह स्पष्ट ही है। आयुकर्मके कालका विचार सातों पृथिवियोंमें इसी प्रकार कर लेना चाहिये। मात्र प्रत्येक पृथिवीमें सात कर्मों के जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका जो काल है उसे अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट भवस्थितिको व स्वामित्वको देखकर घटित कर लेना चाहिये । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्रथिवीमें इन कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल तो एक समय ही प्राप्त होता है, क्योंकि सर्वत्र भवग्रहणके प्रथम समयमें ही जघन्य प्रदेशबन्ध होता है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कम जघन्य भवस्थिति प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि सर्वत्र जघन्य प्रदेशबन्धका एक समय काल कम कर देने पर यह काल शेष बचता है और उत्कृष्ट काल सर्वत्र अपनी-अपनी उत्कृष्ट भवस्थिति प्रमाण है, यह स्पष्ट ही है। यहाँ प्रसंगसे इस बातका स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि जिस-जिस मागेणाम आयकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध घोलमान जघन्य योगसे होता है, वहाँ उसका नारकियों के समान ही काल घटित कर लेना चाहिये । कोई विशेषता न होनेसे हम आगे उसका स्पष्टीकरण नहीं करेंगे। ७३. सामान्य तिर्यश्च, एकेन्द्रिय, नपुंसकवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदी जीवों में अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है। विशेषार्थ-यहाँ पर जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें ओघके समान काल घटित १. मा० प्रतौ उ० ए० । सागरो० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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