SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कालपरूवणा ज० ए०, उ० अंतो० ' । एवं सुहुमसंप० सम्मामि० । ६८. विभंगे सत्तण्णं क० उक्क० ओघं० । अणु० ज० ए०, उ० तैत्तीसं० देसू० । आभिणि-सुद-ओधि० सत्तण्णं क० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० छाडि ० सादि० । एवं अधिदं ० सम्मा० । मणपज० सत्तण्णं क० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी दे० । एवं संज० - सामा००-छेदो०- परिहार०-संजदासंज० । चक्खु ० तपजत्तभंगो । ६९. छण्णं लेस्साणं सत्तण्णं क० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए० उ० तेत्तीस सत्तारस सत्तसाग० बे अट्ठारस तेत्तीसं साग० सादि० । २ ७०. खइग० सत्तण्णं क० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० तेत्तीसं सादि० । वेदग० सत्तणं क० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० छावट्टि०सा० । उवसम० सत्तण्णं क० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० | सासणे सत्तणं क० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० छावलिगाओ । ३३ पल्यपृथक्त्वप्रमाण और सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण है । अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए । 1 ६८. विभङ्गज्ञानी जीवों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओके समान है । अनुत्कुष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । मनःपर्यययज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवों में जानना चाहिये । चक्षुदर्शनी जीवोंमें सपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । ६९. छह लेश्याओंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर, साधिक सात सागर, साधिक दो साधिक अठारह सागर और साधिक तेतीस सागर है । सागर, ७०. क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काळ ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धको जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है । उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय १. ता० प्रतौ अणु० ज० उ० ए० अंतो० इति पाठः । २. भा०प्रतौ अट्ठारस साग० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy