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________________ ३६८ महाधे पदे सबंधाहियारे देवाउ ० उच्चा० - पंचत० जह० अजह० के० ? असंखेज्जा | मणुसाउ० आहार ०२ जह० अह० के० ? संखेजा' । सेसाणं जह० के० ? संखेजा । अजह० के० ? असंखेजा । एवं अधिदं०-सम्मा०- खड्ग०- वेदग०-उवसम० । ५९१. संजदासंजद० सव्यपगदीणं जह० अजह० के० ? असंखैखा । णवरि सव्वाणं णामाणं जह० के० ? संखेखा । अजह० के० ? असंखेखा । णवरि तित्थ० जह० अजह० के० ? संखेजा । ५९२. चक्खु ० पंचिंदियभंगो। तेउ-पम्माणं दोगदि वे उच्चि ०-तेजा० क०- -वेउन्त्रिऔर पाँच अन्तरायका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात है । मनुध्यायु और आहारकद्विकका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने है ? संख्यात है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ — चारों गतिके असंयतसम्यग्दृष्टि जीव प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर पाँच ज्ञानात्ररणादिका जघन्य प्रदेशबन्ध करते हैं । यथा - देवायुका दो गतिके जीव योग्य सामग्री के सद्भावमें जघन्य प्रदेशबन्ध करते हैं । अतः इनका परिमाण असंख्यात है, इसलिए यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिके जघन्य प्रदेशोंका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात कहे हैं । तथा इन मार्गणाओं में असंख्यात जीव होते हैं, इसलिए पाँच ज्ञानावरणादिका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव भी असंख्यात कहे है । मनुष्यायु और आहारकद्विकका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात है, यह स्पष्ट ही है । अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो इनका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात होते हैं, अतः यहाँ इनका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है और इनका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात होते हैं, यह स्पष्ट ही है । अवधिदर्शनी आदि मार्गणाओं में अपने-अपने स्वामित्व के अनुसार यह प्ररूपणा इसी प्रकार बन जाती है, इसलिए उनमें आभिनिबोधिकज्ञानी आदिके समान जानने की सूचना की है । ५९१. संयतासंयत जीवोंमें सब प्रकृतियों का जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने है ? असंख्यात हैं । इतनी विशेषता है कि नामकर्मकी सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात है । अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । उसमें भी इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात है । विशेषार्थ - यहाँ पर नामकर्मकी अन्य सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धके समय होता है, इसलिए इनका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है, क्योंकि संयतासंयत गुणस्थान में मनुष्य ही तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करते हैं, और इसी कारण से तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण भी संख्यात कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । ५९२ चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग पचेन्द्रियों के समान है । पीतलेश्या और पद्मलेश्या में दो गति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, १. भा० प्रती 'असंखेज्जा' इति पाठः । २. ता० प्रतौ 'ओधिदं० । सम्माः खइग० वेदग० उवसम० संजदासंजद०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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