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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे जह० के० ? संखेजा । अजह० के० १ असंखेंज्जा । एवं अणुदिस-अणुत्तर० । ५८७. सव्वएइंदि०-सव्ववणप्फदि-णियोद० ओघभंगो। पंचिंदि०-तस०२ देवगदि०४-तित्थ० जह० के० १ संखेंज्जा । अजह० के० १ असंखेज्जा। आहार०२ ओघं । सेसाणं जह० अजह० केव० ? असंखेंज्जा। __५८८. पंचमण-तिण्णिवचि० दोगदि-वेउवि०-तेजा०-क०-वेउवि अंगो०-दोआणु०-तित्थ० जह० के० ? संखेज्जा। अजह० के० १ असंखेंज्जा। [आहारदुगं ओघं] । बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार नौ अनुदिश और चार अनुत्तरके देवों में जानना चाहिए। विशेषार्थ-जिस प्रकार नारकियोंमें परिमाणको प्ररूपणा की है, उसी प्रकार सामान्य देवोंमें भी उसकी प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उसे नारकियोंके समान जाननेकी सूचना को है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें भी इसी प्रकार वह प्ररूपणा घटित कर लेनी चाहिए । मात्र जहाँ जो प्रकृतियाँ हों, उनके अनुसार ही वहाँ उसका विचार करना चाहिए । सौधर्म और ऐशान कल्पमें अन्य प्ररूपणा तो इसी प्रकार है,मात्र इन कल्पोंमें मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका भङ्ग तीर्थङ्कर प्रकृतिके समान होनेसे तीर्थङ्कर प्रकृतिके साथ इन दो प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण अलगसे कहा है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंका भङ्ग सौधर्म-ऐशान कल्पके समान होनेसे इसे उनके समान जाननेकी सूचना की है। आनतसे लेकर चार अनुत्तर तकके आगेके देवोंमें यद्यपि देवराशि असंख्यात है, फिर भी इनमें सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात ही प्राप्त होते हैं। कारणका विचार स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए । ५८७. सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक और निगोदकेजीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्करप्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं? असंख्यात हैं। विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में बँधनेवाली प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध ओघसे भी एकेन्द्रियों में ही होता है, इसलिए यहाँ सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक और निगोदजीवों में ओघके समान प्ररूपणा जाननेकी सूचना की है। पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक असंख्यात होते हैं, इसलिए इनमें देवगतिचतुष्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़कर अन्य प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात बन जानेसे वह उतना कहा है। तथा देवगतिचतुष्क आदिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पष्टीकरण जिस प्रकार ओघमें किया है, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। ५८८. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में दो गति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्करप्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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