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________________ उत्तरपर्गादपदेसबंधे परिमाणपरूवणा ३६३ जह० अज० केव० १ असंखेंजा । देवग०-वेउवि०-वेउवि अंगो०-देवाणु०-तित्थ. जह० केव० ? संखेजा। अजह० केव० ? असंखेंजा। आहारदुगं जह• अजह.' केव० ? संखेंजा। एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालि०-ओरालि०मि०. कम्मइ०-णवूस०-कोधादि०४ - मदि-सुद०-असंज. अचक्खुदं०-किण्णले०-णील.-काउ०. भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि-आहार-अणाहारग त्ति । णवरि ओरालि०मि०कम्मइ०-अणाहारगेसु देवगदिपंचग. जह• अजह० के० ? संखेजा। मदि-सुद०अब्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि त्ति तिण्णिआउ०-वेउव्वियछक्कं जह. अजह. के. ? असंखेंजा। असंख्योत होते हैं। देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने होते हैं ? संख्यात होते हैं । अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने होते हैं ? असंख्यात होते हैं । आहारकद्विकके दो पदोंका बन्ध करनेवाले जीव कितने होते हैं ? संख्यात होते हैं। इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, असंयत, अचक्षदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें तीन आयु और वैक्रियिकषटकका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। विशेषार्थ-जिन प्रकृतियोंका ‘णवरि' पद द्वारा अलगसे उल्लेख किया है, उन्हें छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म, निगोद, अपर्याप्त जीव भवके प्रथम समयमें योग्य सामग्रीके सद्भावमें करते हैं। तथा इन प्रकृतियोंका एकेन्द्रियादि सभी जीव बन्ध करते हैं, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण अनन्त कहा है। तीन आयु और नरकगतिद्विकका बन्ध असंज्ञी आदि जीव करते हैं, इसलिए इनके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात कहा है । देवगति आदि पाँच प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध :प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए मनुष्य योग्य सामग्रीके सद्भावमें करते हैं। ऐसे मनुष्योंका परिमाण संख्यात है, अतः इन प्रकृतियोंके उक्त पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। तथा इनका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात है यह स्पष्ट ही है। आहारकद्विकका बन्ध करनेवाले ही संख्यात हैं, इसलिए इनके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। यह ओघारूपणा तिर्यश्चगति आदि अन्य निर्दिष्ट मार्गणाओं में भी यथासम्भव बन जाती है, अतः उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र औदारिकमिश्रकाययो कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका बन्ध करनेवाले जीव ही संख्यात होते है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है । तथा मत्यज्ञानी आदि पाँच मार्गणाएँ ऐसी हैं जिनमें देवगतिचतुष्कके जघन्य १. ता. आप्रस्योः 'माहारदगं दो अज०' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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