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________________ ३५८ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ५७३. णिरएसु ' सव्वपगदीणं उक्क० अणु० के० १ असंखेजा। मणुसाउ० उक्क० अणु० संखेंजा। एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्खा सव्वअपञ्जत्ता सव्यविगलिंदिय-सव्वपंचकायाणं वेउवि०-वेउब्वियमिस्सकायजोगीणं च । ५७४. मणुसेसु दोआउ०-वेउव्वियछ०-आहारदुग-तित्थ० उक० अणु० के० ? संखेंजा। सेसाणं उक्क० के० ? संखेंजा। अणु० के० ? असंखेंजा। मणुसपजत्तमणुसिणीसु सव्वपगदीणं उक० अणु० के० ? संखेजा। एवं मणुसिभंगो सव्वट्ठ०आहार०-आहारमि०-अवगदवे०-मणपज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार-सुहुमसंप० । संख्यात कहा है। मात्र तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले भोगभूमिमें जन्म नहीं लेते,इतना विशेष जानना चाहिए । यहाँ इन तीनों मार्गणाओं में प्रशस्त विहायोगति आदि कुछ अन्य प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी उक्त जीव ही करते हैं, इसलिए इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण भी संख्यात कहा है । समचतुरस्त्रसंस्थान भी प्रशस्त विहायोगतिके साथ गिना जाना चाहिए, क्योंकि इसका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी उक्त जीव ही करते हैं। इसी बातको सूचित करनेके लिए शेष प्रकृतियोंके विषयमें विशेषता जान लेनी चाहिए,यह कहा है। ५७३. नारकियोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मात्र मनुष्यायुका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारको, सब पश्चन्द्रिय तियश्च, सब अपयोप्त, सब विकलन्द्रिय प्रारम्भके चार और प्रत्येक वनस्पति ये सब पाँच स्थावरकायिक, वैक्रियिककाययोगी और वैकियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-ये सब राशियाँ असंख्यात हैं, इसलिए इनमें अपने-अपने स्वामित्वको देखते हुए मनुष्यायुके सिवा शेष सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात बन जाता है। तथा सब प्रकारके नारकियोंमेंसे आकर यदि मनुष्य होते हैं तो गर्भज मनुष्य ही होते हैं, इसलिए इनमें मनुष्यायुका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। यहाँ सब पश्चेन्द्रिय तियश्च आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें नारकियोंके समान मनुष्यायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव तो संख्यात ही हैं, पर अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात है- इतना विशेष जानना चाहिए । यद्यपि मूल में इस विशेषताका निर्देश नहीं किया है, पर प्रकृतिबन्ध आदिके देखनेसे यह ज्ञात होता है। ५७४. मनुष्यों में दो आयु, वैक्रियिकषटक, आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात है। इसी प्रकार मनुष्यिनियोंके समान सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-मनुष्यों में दो आयु आदि ग्यारह प्रकृतियोंका बन्ध लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य नहीं करते, इसलिए इनमें इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव १ ता०प्रतौ 'जाणिदब्बो । सामित्तेण णिरयेसु' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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