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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं ३४३ असुभ अजस० । सेसाणं तित्थयरेण सह णि० बं० णि० अजह० संखे भागभ० । एवं संजद - सामाइ ० - छेदो० परिहार० । सुहुमसंप० उक्कस्तभंगो । O ५५२. संजदासंजदेसु आभिणि० जह० पदे०चं० चदुणा० छदंस ० -सादा०अडक० - पुरिस०- हस्स-रदि-भय-दुगु० - देवाउ०- उच्चा०- पंचंत० णि० चं० णि० जह० । देवग० - पंचिंदि० - वेड व्यि० तेजा० क० समचदु० - वेउच्वि० अंगो० वण्ण०४ - देवाणु० - · संखेजदिभाग भ० । अगु०४ - पसत्थ० -तस०४ - थिरादिछ० - णिमि० णि० चं० तं तु ० तित्थ० सिया० जह० । एवमेदेण कमेण परिहार०भंगो । ५५३. असंदेसु मूलोघं । चक्खु ० - अचक्खु०सण्णि० मूलोघं । किष्ण - णील- काउ० मूलोघं । केण कारणेण १ दव्वलेस्सा तस्स तिण्णि वि भावलेस्सा' परियत्तं तेण कारणेण ० । तित्थ० जह० पदे ० बं० देवगदि०४ पि० बं० णि० अजह० असंखैजगुणन्भ० । बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार अर्थात् अस्थिरका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान अशुभ और अयशःकीर्तिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका तीर्थङ्कर प्रकृतिके साथ नियमसे बन्ध करता है जो इनका संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें जानना चाहिए। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अपने उत्कृष्ट सन्निकर्ष के समान भङ्ग है । ५५२. संयतासंयत जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवायु, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विदायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इस प्रकार इस क्रमसे परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान संयतासंयत जीवोंमें सन्निकर्ष भङ्ग जानना चाहिए । ५५३. असंयतों में मूलोघके समान भङ्ग है । चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवों में मूलोघके समान भङ्ग है । कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें मूलोघके समान भङ्ग है । किस कारणसे ? क्यों कि जो द्रव्यलेश्या है उसकी तीनों ही भावलेश्याएँ परावर्तमान हैं - इस कारणसे । यहाँ तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव देवगतिचतुष्कका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य १. ताप्रती दव्या लेस्सा ? तस्स तिष्णि विभाग (व) लेस्सा' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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