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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं सिया० जह० । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं [वेउव्वि०-] वेउवि०अंगो०-देवाणुः । आहारदुर्ग'ओघं । एवं ओधिदं०-सम्मादि० । ५४८. मणपज० आभिणि• जह० पदे०७० चदुणा०-छदसणा०-सादा०चदुसंज०-पुरिस-हस्स-रदि-भय दुगुं०-देवाउ०-उच्चा०-पंचंत० णि पं० णि० जह० । देवगदि०-पंचिंदि०-वेउन्वि-तेजा. -क० - समचदु०-वेउब्बि०अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०अगु०४-पसत्थ० -तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि. तंतु० संखेंजदिभागभहियं० । आहारदुगं सिया० तं० तु. संखेंजदिभागब्भहियं । तित्थ० सिया० जह० । एवं चदुणा०-छदंसणा०-सादा०-चदुसंज०-पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दुगुं०-उच्चा०-पंचंत० । ५४९. असादा० जह• पदे०५० पंचणा०-छदंस०-चदुसंज०-पुरिस०-भय-दु०. यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार अर्थात् देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरआङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिए | आहारकशरीरद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्षका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अर्थात् आभिनिबोधिकज्ञानी आदिके समान अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। ५४८. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषबेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवायु, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिकशरीरआङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। आहारकद्विकका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् आभिनिबोधिकज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सनिकषके समान चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समिकर्ष कहना चाहिए। ५४९. असातावेदनीयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह १. ता०प्रतौ 'देवाणु० आहार०२' इति पारः। २. ता०प्रतौ 'सम्मादि मणु"चदुसंज०' श्रा० प्रतौ 'सम्मादि० मणु०..."चतुसंज०' इति पाठः । ३. ता प्रतौ 'वेउ० [ तेजाक० समचदु० वेउवि० भंगो० वण्ण. ४]..."देवाणु अगु०४ पसत्थ' श्रा०प्रतौ 'वेउवि तेजाक० समचदु० वेउन्वि. अंगो वण्ण०५ देवाणु' भगु०५ पसस्थ० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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