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उत्तरपगदिपदेसबंधे सब्जियासं
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४८७. एतो णाणापगदिबंधसण्णिकासस्स साधणत्थं विदरिसणाणि वत्तइस्सामो | मूलपगदिविसेसो पिंडपगदिविसेसो उत्तरपगदिविसेसो' एदे तिष्णि विसेसा आवलियाए असंखजदिभा० । किं पुण पवाइजंतेण उवदेसेण मूलपगदिविसेसेण कम्मस्स अवहारकालो थोवो | पिंडपगदिविसेसेण कम्मस्स अवहारकालो असंज्ञगुणो । उत्तरपगदिविसेसेण कम्मस्स अवहारकालो असंखेंअगुणो । अण्णवदे मूलपगदिविसेसो आवलियवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो । पिंडपगदिविसेसो पलिदोवमस्स वग्गमूलस्स असंखेजदिभागो । उत्तरपगदिविसेसो पलिदोवम० असंखेजदिभागो । देण अपदे उकस्सपरत्थाणसण्णिकासस्स साधणपदा णादव्वा । मिच्छत्तस्स भागो कसाय - णोकसासु गच्छदि । अनंताणु०४ भागो कसाएसु गच्छदि । मूलपगदीओ अह । उत्तरपगदीओ पंचणाणावरणादि० । पिंडपगदीओ बंधण - सरीर-संघाद- सरीरअंगोवंग-वण्णपंच- दोगंध-रसपंच-अड्डफास० एदाओ पिंडपगदीओ । अट्ठ विधवंधगस्स ० ४, २१, २२ एवं याव तीसं० । सत्तविधबंधगस्स ० २४, २५ एवं याव तीसं० । छव्विध बंधस्स ० २८, २९ एवं याव तीसं० पगदिविसेसो दव्वाओ ।
४८८. जहण्णपरत्थाणसण्णिकासे पगदं । दुविधो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण आभिणि० जहण्णपदेसग्गं बंधतो चदुणा०-णवदंस०-मिच्छ० - सोलसक०-भय-दु०
४८७. आगे नाना प्रकृतियोंके बन्धके सन्निकर्षकी सिद्धि करनेके लिए उदाहरण बतलाते हैं - मूलप्रकृतिविशेष, पिण्डप्रकृतिविशेष और उत्तर प्रकृतिविशेष ये तीन विशेष आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । किन्तु प्रवर्तमान उपदेशके अनुसार मूलप्रकृति विशेषसे कर्मका अवहारकाल स्तोक है । पिण्डप्रकृतिविशेषसे कर्मका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । उत्तरप्रकृतिविशेषसे कर्मका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । अन्य उपदेशके अनुसार मूलप्रकृतिविशेष आवलिके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पिण्डप्रकृतिविशेष पल्यके वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्तरप्रकृतिविशेष पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस अर्थ पदके अनुसार उत्कृष्ट परस्थानसन्निकर्षके साधनपद जानने चाहिए । मिथ्यात्वका भाग कषायों और नोकषायों को मिलता है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भाग कषायों को मिलता है । मूलप्रकृतियाँ आठ हैं। उत्तर प्रकृतियाँ पाँच ज्ञानावरणादि रूप हैं । पिण्डप्रकृतियाँ- बन्धन, शरीर संघात, शरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्ण पाँच, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श ये पिण्डकृतियाँ हैं । आठ प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाले जीवके चार, इक्कीस और वाईससे लेकर तीस प्रकृति तक, सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाले जीवके चौबीस और पच्चीस प्रकृतियोंसे लेकर तीस प्रकृतियों तक और छह प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाले जीवके अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतियोंसे लेकर तीस प्रकृतियों तक प्रकृतिविशेष जानना चाहिए ।
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४८८. जघन्य परस्थान सन्निकर्षका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे आभिनिबोधिकज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार
१. ताप्रतौ 'उत्तरपगदिविसेसा' इति पाठ: । २ ० प्रतौ 'विसेसेण अवहारकालो' इति पाठः । २. ता०प्रती 'अस' खेज्जगु० [ णो ] 'उपदेसेण' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ 'उत्तरपगदीए पंचणाणावरणादि० पिं० बंधरा' इति पाठः ।
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