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________________ ३०४ महाबंध पदे सबंध हिया रे सुसर आदें ० - अजस० सिया० O २ गुणही० । तं तु ० संखेजदिभागूणं० । जस० सिया० संखेंजएवं ०' थीण गिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणु० ४- इत्थि० - णवुंस० - णीचा० । वरि इत्थि० - पुंस०-णीचा० मणुसगदिपंचग० णि० बं० णि० उक्क० | पंचसंठा०उस्संघ० - अप्पसत्थ० - दुभग- दुस्सर - अणादें सिया० उक्क० । अट्ठावीस संजुत्ताओ धुवियाओ पगदीओ णि० बं० संखजदिभागूणं० । याओ परियत्तमाणियाओ ताओ सिया० संखेजदिभागूणं ० | देवगदि०४ वञ्ज । एदेण बीजेण णेदव्वाओ भवंति । ४८४, भवसि० ओघं । बेदगस० आभिणि० उक्क० पदे०चं० चदुणाणा छदंस० ३पुरिस०-भय-दु ० - उच्चा० - पंचतं० णि० बं० णि० उक्क० | दोवेद० अपच्चक्खाणाचरण०४ - [ चदुणोक० ] सिया०४ उक्क० । दोगदि - तिण्णिसरीर दोअंगो०-वञ्जरि० बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार अर्थात् निद्रानिद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और नीचगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और नीचगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगतिपञ्चकका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पाँच संस्थान, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दु:स्वर और अनादेयका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । अट्ठाईस प्रकृतिसहित ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । जो परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, उनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मात्र देवगतिचतुष्कको छोड़ देना चाहिए। इस बीज पदके अनुसार शेष सब सन्निकर्ष जान लेना चाहिए । ४८४. भव्यों में ओघके समान भङ्ग है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, पुरुषवेद, भय जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । दो वेदनीय, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियम से उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । दो गति, तीन शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वी, स्थिर आदि तीन युगल और तीर्थङ्करप्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और १. ता०या० प्रत्योः 'संखेजदि० । एवं' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'मिच्छ० ...... [ इस्थि० ] णपु' इति पाठः । ३. आοप्रतौ 'चदुणोक० छ०' इति पाठः । ४. ता०प्रतौ 'अपञ्च [क्खाणावरण०४-] सिया० ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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