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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे सादिरेयं दुभागूणं । जस० सिया० संखेंजगुणही. । एवं पयला० । ४६१. असादा० उक्क० पदे०बं० पंचणा०-चदुदंसणा०-उच्चा०-पंचंत० णि० बं० संखेजदिभागूणं० । णिहा-पयला-भय-दु० णि० बं० णि० उक्क० । अपचक्खाण०४ चदुणोक० सिया० उक्क० । पञ्चक्खाण०४ सिया. तंतु० अणंतभागणं । चदुसंज०पुरिस० सव्वाओ णामाओ णिहाए भंगो कादव्यो । एवं अरदि-सोगाणं । ४६२. अपचक्खाण०४-पच्चक्खाण०४ णिहाए भंगो । णवरि अप्पप्पणो तिण्णिक०'-भय-दु० णि• बं० णि० उक्क० । चदुसंज०-पुरिस० मूलोघो। दोआउ० ओघो । णवरि पाओग्गाओ कादव्याओ। ४६३. मणुसग० उक० पदे०५० पंचणा० - चदुदंस०-उच्चा०-पंचंत० णि० बं० संखेजदिभागणं । णिद्दा-पयला-अपचक्खाण०४-भय-दु० णि. बं० णि० उक्क० । करता है तो इसका नियमसे संन्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार प्रचलाकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४६१ असातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानाबरण, चार दर्शनावरण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । अप्रत्याख्यानावरण चार और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्क का कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । चार संज्वलन, पुरुषवेद और नामकमकी सब प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए। इसी प्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे सन्निकषे जानना चाहिए। ४६२. अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष निद्राकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इन दोनों प्रकारकी कषायोंमेंसे विवक्षित क्रोधादि दो-दो कषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव अपने-अपने तीन कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदको मुख्यतासे सन्निकर्ष मूलोघके समान है। दो आयुओंको मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अपने-अपने प्रायोग्य प्रकृतियाँ करनी चाहिए। ४६३. भनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियम अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध १. ताप्रती 'अप्पप्पणो० । तिगिणक०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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