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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सगियासं २८१ दिवडभागूणं बं० । परिस० सिया० संखेज्जगुणही ० । णामाणं सत्थाण० भंगो । एवं देवाणु ० | एवं हेडा उचरिं देवगदिभंगो इमेसिं वेउब्वि० - समचदु० - वेउन्वि० अंगो०वञ्जरि०-पसत्थ० - सुभग-सुस्सर-आदे० । णामाणं सत्थाण० भंगो | णवरि णवुंस०-णीचागोदं पि अस्थि । १०- उच्चा० ४४६. आहार० उक्क० पदे०चं० पंचणा०-सादा०-हस्स-रदि-भय-दु ० पंचत० णि० बं० णि० उक्क० । दोदंस० सिया० उक्क० । चदुदंस० णि० बं० णि० तं तु० अनंत ० भागूणं बं० । कोधसंज० णि० चं० दुभागूणं बं० । तिण्णिसंज० णि० बं० सादिरेयं दिवडभागूणं बं० । पुरिस० - जस० णि० चं० णि० संखेजगुणही० । णामाणं सत्थाण० भंगो | [ एवं आहारंगो०] । I ४४७. तित्थ० उक्क० पदे०चं० पंचणा०-भय-दु ० - उच्चा० - पंचंत० णि० बं० णि० उक्क० । णिद्दा-पयला० दोवेद० - अपच्चक्खाण ०४- चद् णोक० सिया० उक्क० । साधिक डेढ़ भागहीन भनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानसन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियों की अपेक्षा देवगतिकी मुख्यतासे कहे गए सन्निकर्ष के समान वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेय इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेद और नीचगोत्र भी है। ४४६. आहारकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, सातावेदनीय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो दर्शनावरणका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पुरुषवेद और यशः कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणद्दीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इसी प्रकार आहारकशरीर आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४४७. तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । निद्रा, प्रचला, दो वेदनीय, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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