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________________ महाबंधे पदेसबंघाहियारे पंचंत० णि०० णि० उक्क० । छदंस०-अहक०-भय-दु० णि० ब० णि० अणु० अपंतभागणं । दोवेदणी०-देवगदि०४-दोगोद० सिया० उक्क० । कोधसंज. णि. दुभागणं । तिण्णिसंज. णियमा ५० सादिरेयदिवहभागणं । चदुणोक० सिया० अणंतभागणं ब। दोगदि-ओरा-हुंड०-ओरालि अंगो०-असंप०दोआणु-उज्जो०-अप्पसत्थ-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-दुस्सर-अणादें-अजस० सिया संखेंजदिभागणं बं । पंचसंठा-पंचसंघ०-पसत्य-सुभग-सुस्सर-आदें. सिया० तं•तु. संखेंजदिभागणं बं। पंचिंदि०-तेजा-क०-वण्ण०४ अगु०४-तस०४-[णिमि.] णि० संखेंजदिभागणं ब । जस० सिया० संखेंजगुणही । ४३८. णवूस० उक्क० पदे०५० पंचणा०-थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४पंचंत० णि० उक्क० । सेसाणं इथि भंगो । णवरि णामाणं ओघमंगो। ४३९. पुरिस० उक्क० पदे०७० पंचणा०-चदुदंस०-सादा०-जस०-उच्चा०-पंचंत० नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, आठ कपाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका निममसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध है। दो वेदनीय, देवगतिचतुष्क और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार नोकपायका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है ता इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो गति, औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दु:स्वर, अनादेय और अयश-कीर्तिका कदा. चित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश बन्ध करता है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। यश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ४३८. नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। ४३९. पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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