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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं ૨૭૩ आदें-तित्थ० सिया० तंतु० संखेंजदिभागणं । पंचिंदि०-तेजा.-क०-वण्ण०४. अगु,०४. तस ४-थिर'-सुभ०-[णिमि०] सिया० संखेजदिभागणं ब० । वेउव्वि०अंगो० सिया० तंन्तु० सादिरयं दुभागणं० । एवं तिण्णिदंस० । ४३२. सादा० आभिणिभंगो। णवरि णिरय-णिरयाणु० वज्ज । अप्पसत्थ०दुस्सर० सिया० संखेजदिभागणं ब। ४३३. असादा० उक्क० पदे०ब पंचणा०-पंचंत. णि० ब० णि० उक्क० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ - इथि० --णस०-णिरय०-णिरयाणु०-आदाव०दोगोद० सिया० उक० । णिहा-पयला-भय दु० णि० बं० णि० तंतु० अणंतभागणं । चदुदंस० णि० ब० णि. अणंतभागणं बं० । अट्ठक०-चदुणोक० और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पश्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, स्थिर, शुभ और निर्माणका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे साधिक दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनावरण आदि तीन दर्शनावरणको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ४३२. सातावेदनीयकी मुख्यतासे सन्निकर्षका भङ्ग आभिनियोधिकज्ञानावरणकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है। इतनी विशेषता है कि नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ४३३. असातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, भय, और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। . चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। आठ कषाय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट १. श्रा० प्रतौ 'तस थिर' इति पाठः । २. ता प्रतौ 'तिण्णिदंस० साद.' इति पाठः । ३. ता० आ० प्रत्योः 'आदाव तित्थ दोगोद.' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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