SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० महाबंधे पदेसबंधाहियारे भागणं बं । दोवेदणी०-दोगोद० सिया० उक्क० । चदुणोक० सिया० अणंतभागणं । दोगदि-समचदु०-हुंड०-असंपत्त०-दोआणु० - उज्जो०-पसत्थ-थिरादिपंचयुगसुस्सर० सिया० संखेंजदिभागणं बं० । पंचिंदि०-ओरालि-तेजा-क०-ओरालि.. अंगो०-बण्ण०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णि. ब. णि० संखेंजदिभागणं । चदुसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० सिया० तंतु० संखेंजदिभागणं ब। ३९५. आउ० अपञ्जत्तभंगो। णवरि याओ पगदीओ बंधदि ताओ णियमा असंखेंजगुणहीणं बं० सिया० संखेंजगुणहीणं० । ३९६. तिरिक्ख० उक्क० पदे०६० पंचणा०-थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४णस०-णीचा०-पंचंत० णि. उक्क० । छदंस०-बारसक ०-भय-दु० णि० ० अणंतभागूणं बं० । दोवेदणी० सिया० उक्क० । चदुणोक० सिया० अणंतभागणं बं० । णामाणं सत्थाणभंगो। एवं तिरिक्खगदिभंगोमणुस०। पंचजादि'-तिण्णिसरीर-पंचसंठा०करता है। दो वेदनीय और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । दो गति, समचतुरस्र संस्थान, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि पाँच युगल और सुस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करता है। चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ३९५, आयुकर्मका भङ्ग अपर्याप्त जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि जिन प्रकृतियोंको नियमसे बाँधता है उन्हें असंख्यातगुणहीन बाँधता है और जिन प्रकृतियोंको कदाचित् वाँधता है उन्हें संख्यातगुणहीन बाँधता है। ३९६. तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे वन्ध करता है जो इनका नियससे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कपाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनको नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीयका कदाचित बन्ध करता है। बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह इनका अनन्तभागहीन अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानसन्निकर्षके समान है। इसीप्रकार तिर्यञ्चगतिके समान मनुष्यगतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। पाँच जाति, तीन 1. ता० प्रती 'मणुस० पंचजादि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy