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________________ २४० महाबंधे पदेसर्बधाहियारे तस०४[ युग-] थिरादितिण्णियुग-भग-अणादें.'-णिमि० णामाणं०२ अप्पप्पणो सत्थाणभंगो ।.पंचसंठा-पंचसंघ०-दोविहा०-सुभग-दुस्सर-आर्दै हेढा उवरिं सो चेव भंगो । णवरि इत्थि०-पुरिस०-उच्चा० सिया० उक्क० । ३७६.। उच्चा० उक्क० पदे०ब पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदु०-पंचंत. णि० ब० णि. उक० । दोवेद०-सत्तणोक०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-दोविहा०-सुभग-दुस्सर आदेज सिया० उक० । मणुस०-पंचिंदि०-तिण्णिसरीर-ओरालि०अंगो०-वण्ण०४-मणुसाणु०-अगु०४-तस०४-णिमि० णि०० णि० संखेंजदिभागू० । हुंड-असंप०-थिरादितिग्णियुग-भग-अणादें सिया० संखेंजदिभागणं बं० । एवं सव्वअपजत्ताणं सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं । णवरि तेउ०-वाउ. मणुसगदि०३ वज । ३७७. मणुसा०३ ओघं । देवेसु आभिणि० उक्क० पदेब चदुणा०-पंचंत० णि० ० णि० उक्क० । थीणगिद्धि०३-दोवेदणी-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि० वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क युगल, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग, अनादेय और निर्माण नामकर्मको प्रकृतियोंका भङ्ग अपने-अपने स्वस्थानके समान है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर और आदेयकी मुख्यता पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका वही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ३७६. उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, सात नोकषाय, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर और आदेयका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, तीन शरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। हण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग और अनादेयका मंदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त जीवोंके तथा सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें मनुष्यगतित्रिकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। ३७७. तीन प्रकारके मनुष्योंमें ओघके समान भङ्ग है । देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानाजाणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्लोवेद, नपुंसकवेद, भातप, तीर्थकर प्रकृति और दो गोत्रका १. ता०भा०प्रत्योः 'दूभग दुरुसर अणादे०' इति पाठः। २. ता०प्रती 'णिमि० । णामाणं' इति पाठः । ३. वा० प्रती 'सुभग सुस्सर बादेज' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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