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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णयासं २०१ णि० संखेज्जभागन्महियं बं० । णिरयाणु० णि० चं० णि० जह० । एवं णिरयाणु ० । [तिरिक्ख० जह० पदे०चं० ओरालि० - ] ओरालि० अंगो० वण्ण०४ - तिरिक्खाणु० ०४-उज्ज०-०४- णिमि० णि० बं० णि० जह० | तेजा० क० णि० बं० णि० संखेंज्जभागन्भहियं बं० । चदुजादि - छस्संठा० - छस्संघ० - दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० जह० । एवं तिरिक्खगदिभंगो हुंड० - असंप ० - तिरिक्खाणु ० उज्जो०- अप्पसत्थ० - दूभग- दुस्सरअणादें | मणुसग ० जह० पदे ० बं० पंचिंदि० ओरालि० - समचदु० - ओरालि० अंगो० - वञ्जरि० ०४ - मसाणु ० [अ० ४ ] पसत्थवि० -तस०४ - सुभग- सुस्सर-आदें० - णिमि० - तित्थ ० णि० ब० णि० जह० । तेजा० क० णि० नं० णि० संखेज्जभागन्भहियं ब० । थिरादितिष्णियुग ० सिया० जह० । एवं मणुसगदिभंगो मणुसाणु ० - तित्थ० । देवग० जह० पदे० ० पंचिंदि० - समचदु० - वण्ण०४ याओ पसत्थाओ णिमि० - तित्थ० णि० बं० णि० अज० संखेज भागन्भहियं बं० । वेउव्वि० तेजा० क० - वेउन्वि ० अंगो० णि० बं० णि० तं ० तु ० संखेजभागन्भहियं बं० । श्राहार०२ सिया० जह० । एवं देवाणु० । 1 है जो नियम से संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे प्रदेशबन्ध करता है जो नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यञ्चगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव औदारिकशरीर, ओदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, भगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर और कार्मणशरीरका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार तिर्यगतिके समान हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, तिर्यच गत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्धमनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्करप्रकृतिका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर और कार्मणशरीरका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार मनुष्यगतिके समान मनुष्यत्यापूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पश्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, इस प्रकार निर्माण पर्यन्त जितनी प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं उनका और तीर्थङ्करप्रकृतिका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर और वैक्रियिकशरीरभाङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । आहारकद्विकका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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