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________________ १९८ महाबंधे पदेसबंधाहियारे तं तु० संखेजभागब्भहियं । आहार-आहार० अंगो० सिया० जह० । देवाणु०तित्थ० णि० ब० णि० जहण्णा । एवं देवाणुपु०-तित्थ । आहार० जह० पदे. ब. देवगदि-वेउवि०-वेउव्वि अंगो०-देवाणु -तित्थ० णि० ५० जह० । सेसाणं णिणि . अज० असंखेंजगुणब्भहियं ।। ३०.७ देवेसु सत्तण्णं कम्माणं ओघं । तिरिक्खगदिदंडओ मणुसगदिदंड ओ एइंदियदंडओ ओघो । एवं भवण०-वाणवें-जोदिसि । ३०८. सोधम्मीसाणेसु सत्तण्णं कम्माणं ओघो। तिरिक्व० जह० पदे०५० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-उज्जो०तस०४-णिमि० णि० ब० णि० जह० । छस्संठा ०-छस्संघ०-दोविहा०थिरादिछयुग० सिया० जह० । एवं तिरिक्खाणु०-उजो० । मणुस० जह० पदे०० पंचिंदि०-तिण्णिसरी०-समचदु०-ओरालि अंगो०-बजरि०-वण्ण० ४-मणुसाणु०-अगु०४पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आर्दै०-णिमि०-तित्थ० णि० ० णि० [जह०] । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। आहारकशरीर और आहारकशरीर आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे जघन्य प्रदेशवन्ध करता है। देवगत्यानुपर्वी और तीर्थङ्करप्रकृतिका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्करप्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। आहारकद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका नियमसे वन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। ३:७. देवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यञ्चगतिदण्डक, मनुष्यगतिदण्डक और एकेन्द्रियजातिदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। ३०८. सौधर्म और ऐशानकल्पके देवों में सात काँका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यञ्चगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकरारीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसीप्रकार तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशवन्ध करनेवाला जीव पश्चन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्ण भनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, बसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। १. ता.पतौ 'देवाणुषु० । तित्थः' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'भवण. भवण (?) वाणवें.' इति पाठः। ३. ता.प्रतो 'णि. ज. छस्संठा०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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