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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे अंतरं २३ Jain Education International १७७ ओघसे प्राप्त होता है वैसा यहाँ भी बन जाता है, इसलिए यहाँ यह ओघके समान कहा है । दो आयु आदिका जघन्य प्रदेशबन्ध घोलमान जघन्य योगसे होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है । मात्र मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म अपर्याप्त जीवके भवके प्रथम समयमें होता है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण कहा है। तथा अपनी कार्यस्थितिके प्रारम्भ में और अन्तमें यथासमय इनका बन्ध हो और मध्य में न हो यह सम्भव है, क्योंकि एकेन्द्रिय पर्याय में रहते हुए नरकायु, देवायु और नरकगतिद्विकका तथा अग्निकायिक और वायुकायिक पर्याय में रहते हुए मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । अपनी कार्यस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें इन प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध कराकर यह अन्तर ले आना चाहिए । तिर्यवायुका जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म अपर्याप्त जीवके दो भवोंके तृतीय भागके प्रथम समय में दो बार करानेसे इसके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और कार्यस्थितिके प्रारम्भ में और अन्त में करानेसे उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण आता है । ज्ञानावरण के जघन्य प्रदेशबन्ध का यह अन्तर इतना ही है, इसलिए तिर्यञ्चायुके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तर ज्ञानावरण के समान कहा है । तथा एक त्रिभागबन्ध से द्वितीय त्रिभागबन्धमें कम से कम अन्तर्मुहूर्त - का अन्तर होता है और आहारक जीव अधिक से अधिक सौ सागरपृथक्त्व कालतक तिर्यवायुकबन्ध न करे यह सम्भव है, इसलिए तिर्यवायुके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण कहा है। एक बार मनुष्यायुका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध होकर पुनः होने में कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल और अधिक से अधिक कायस्थितिप्रमाण काल लगता है, इसलिए इसके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण कहा है। तिर्यगतित्रिकके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान होनेसे इनका भङ्ग ज्ञानावरणके समान कहा है। तथा इनके अजघन्य प्रदेशबन्ध का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ त्रेसठ सागर ओघके समान यहाँ भी बन जाता है, इसलिए यह भङ्ग ओघके समान कहा है । देवगतिचतुष्कका जघन्य प्रदेशबन्ध प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ असंयतसम्यग्दृष्टि आहारक मनुष्य तीर्थङ्कर प्रकृति के साथ करता है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्ध के अन्तरकालका निषेध किया है । तथा ये एक तो परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं और दूसरे कायस्थितिप्रमाण कालतक इनका बन्ध न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काय स्थितिप्रमाण कहा है। एकेन्द्रियजातिदण्डक और औदारिकशरीरत्रिकका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है, यह स्पष्ट है, क्योंकि जघन्य स्वामित्वकी अपेक्षा ज्ञानावरणसे इनमें कोई भेद नहीं है । तथा एकेन्द्रियजातिदण्डकके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर व औदारिकशरीरत्रिक के अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य ओघके समान यहाँ भी बन जाने से वह ओघ के समान कहा है । आहारकशरीरद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध घोलमान जघन्य योगसे होता है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त ओघके समान यहाँ बन जानेसे वह ओघके समान कहा है। तथा ये एक तो सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं । दूसरे जघन्य प्रदेशबन्ध के समय अजघन्य प्रदेशबन्ध नहीं होता और कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्त में इनका बन्ध हो और मध्यमें न हो यह भी सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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