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________________ १७४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ___ २६७, असण्णीसु पढमदंडओ मदि०भंगो । चदुआउ०-मणुसगदि०३ तिरिक्खोघतृतीय त्रिभागके प्रथम समयमें सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण कहा है और यह जघन्य प्रदेशबन्ध कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें यथासमय हो और मध्यमें न हो यह भी सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण कहा है। एक बार आयुबन्ध हो कर पुनः आयुबन्धमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है तथा कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्त में विवक्षित आयुका बन्ध हो और मध्यमें अन्य आयुका बन्ध हो यह सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण कहा है। नरकगतिद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध संज्ञी जीवके घोलमान जघन्य योगसे होता है, इसलिए यह एक समयके अन्तरसे भी हो सकता है और कुछ कम कायस्थितिके अन्तर से भी हो सकता है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण कहा है। तथा इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर जो एक सौ पचासी सागर अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धके अन्तरके समान कहा है सो वह यहाँ भी बन जाता है। तिर्यञ्चगतित्रिकके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान ही है, इसलिए इसेके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निपध किया है। तथा इसके अजघन प्रदेशबन्धका अन्तर काल ओघके समान कहनेका कारण यह है कि ओघसे जो इसके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ बेसठ सागर कहा है, वह यहाँ भी बन जाता है। दो गति आदिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। तथा एक तो ये सप्रतिपक्ष प्रकृतिया है। दूसरे यहाँ साधिक तेतीस सागर काल तक इनका बन्ध नहीं है इसलिए इनके अजघन शबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। मात्र मनुष्यगति आदिका उत्कृष्ट अन्तर लानेके लिए नरकमें उत्पन्न कराना चाहिए। और देवगतिका उत्कृष्ट अन्तर लानेके लिए उपशमश्रेणि पर आरोहण करा कर और वहीं मृत्यु करा कर देवों में उत्पन्न कराना चाहिए। एकेन्द्रियजातिदण्डकके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी भी ज्ञानावरणके समान है, इसलिए इसके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तर | निषध किया है। तथा इसके अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल जो ओघके समान कहा है सो ओघसे जो इसके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर बतलाया है, वह यहाँ भी घटित हो जाता है। औदारिकशरीर आदिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान ही है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेश के अन्तरकालका निषेध किया है। तथा इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल ओघके समान कहनेका कारण यह है कि ओघसे जो इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य कहा है. वह यहाँ भी बन जाता है। आहारकद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध आयुबन्धके समय घोलमान जघन्य योगसे होता है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण कहा है। तथा ये एक तो सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें यथा समय इनका बन्ध हो और मध्य में न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण कहा है। २६७. असंज्ञियों में प्रथम दण्डकका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। चार आयु और मनुष्यगतित्रिकका भग सामान्य तियञ्चोंके समान है। क्रियिक छहके जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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